हवाएं

शनिवार, 20 सितंबर 2014

कविता : वादियों में एक बर्फीली शाम




दूर गगन की छाँव  में
तन्हा था वो गाँव,
घनी वादियाँ  ढकी हुई थी बर्फीले चादर में ,
इन का मालिक, शायद परिचित था मेरा कोई,
रहता था वो दूर कहीं ।
मेरे आने, रुकने की आहात
देख नहीं सकता था वो अभी ।

मेरा साथी  ,चेतक मेरा
चौंक उठा मेरे रुकने पर ,
ना कहीं छाया , ना कोई ठौर
क्यों बढ़ आया था मैं इस ओर ,
हल्के झोंके से  रोका उसने,
अपनी भाषा में टोका उसने
क्यों बढ़ आया था मैं इस ओर ।

खूब घनी अप्रतीम सुंदर हो तुम
पर कुछ वादा मुझको है निभाना,
ऐ वादियों ना ठहरूँगा अभी ,
दूर मुझे है जाना ।

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

मामाजी



        'मामाजी', यूं तो मेरे मामाजी थे पर मुहल्ले के मेरे उम्र के सारे लड़के उन्हें मामाजी ही कहा करते थे।कलकत्ता शहर के समीपवर्ती इलाका हाजीनगर में रहते थे।बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।आजादी के पहले के थे।उनके बचपन का सुनहरा समय 'बर्मा' और रंगून में बीता था।उनके पिताजी वहां सोने चांदी का व्यापार करते थे।वैसे तो रहने वाले उत्त्र प्रदेश के थे पर रोजी रोटी से पिताजी के जुड़े होने के कारण वो भी वहीं रह रहे थे।उस समय की बातें एवं कई प्रकार की बाते बताते थे जो कि हमारे लिए परी लोक की कथाओं से भी बढ़कर रूचिकर लगता था।हम सदा इस इंतजार में रहते थे कि कब समय मिले और हम कब उनसे मिलने पहुंच जाएं।जब भी कभी वो हमारे यहां आते हम बच्चों की टोली उनको घेर लेती थी कहानियां सुनने के लिए।उनके द्वारा सुनाए गए कहानियों क कुछ अंश :
        एक बार की बात है।विश्वयुद्ध पूरे जोरों पर था। सभी लोग अपना सबकुछ समेटकर सुरक्षित निकल जाने के प्रयास में लगे हुए थे।मामाजी के पिताजीह्यनानाजीहृ भी अपना सबकुछ समेटकर निकलने के प्रयास में लगे थे।फौजी गाड़ियों के अलावा कोई साधन न था।आवागमन के हर रास्ते बंद थे।कुछ आगे जाने पर अमेरिकी सेना की एक टुकड़ी मिली सभी लोग परेशान थे।इकलौती जीप खराब जो हो गई थी। किसी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था।नानाजी वहीं पास में बैठे यह सब देख रहे थे।उनसे रहा नहीं गया।आगे बढ़ चले सहायता को।हैरानी की बात यह थी की उन्हें गाड़ियों के बारे में कुछ भी पता नहीं था और चले थे गाड़ी ठीक करने।वेशभूषा एवं    व्यक्तित्व से दबंग दिखते भी थे।

        'क्या  बात है साहब क्या परेशानी है?
        हमारी गाड़ी खराब हो गई है।अरे मैन टुमसे हो पाएगाॐॐॐ

        'कोशिश करके देखते हैं।' नानाजी ने कहा और फिर चारों ओर से मुआयना करने लगे।सभी कौतुहल से उनको देख रहे थे।थोड़ी देर के बाद उन्हें एक तार लटकता हुआ दिखाई दिया।नानाजी ने सोचा 'हो ना हो समस्या इस तार की वजह से है।नानाजी ने कहा कि इस तार को जोड़ो और फिर गाड़ी स्टार्ट करो।
        मानो चमत्कारहो गया हो।घर्र की आवाज के साथ गाड़ी स्टार्ट हो गई।फौज के कमांडर ने उनका धन्याद किया और नाम पूछा।नानाजी ने अपना नाम 'बाप' बताया।नानाजी  सेना के उस टुकड़ी के सभी लोगों के 'बाप' बन गए।उन्हें उस टुकड़ी के साथ मैकेनिक के रूप में रहने का मौका मिल गया।
        युद्ध के बादल कट गए।धीरे धीरे सेना वापसी की ओर मुड़ी।उस टुकडी के कमांडर ने 'बाप' से आग्रह किया कि उनके साथ उनके देश चल चलें ।पर नानाजी को अपने गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू पुकार रही थी और उसके आगे सबकुछ फीका है।नानाजी ने घर जाने की जिद पकड़ लिया।अंत में उन्हें असम के रास्ते लाकर सपरिवार कलकत्ता के पास छोड़कर वह टुकड़ी अपने देश रवाना हो गई।नानाजी अपने गांव की ओर रूख किए।
        सोचा था कि गांव पहुंचकर स्वागत होगा।अपने लोग विछुड़े को गले लगाएंगे।पर यह क्या? घर पहुंचते ही परिवार के सदस्यों ने उन्हें परिवार से अलग कर दिया तथा उनके हिस्से की जमीन जायदाद में भी उन्हें नहीं दिया।नानाजी फिर से रास्ते पर आ गए।
        क्या करते अपनों से निकाले जाने के बाद 'नानाजी' सपरिवार कलकत्ता आ गए गुजर बसर करने के लिए।उन दिनों मामाजी की उम्र लगभग बारह साल रही होगी।
        इतनी कम इम्र और फिर परिवार के ऊपर पड़ा बोझ सबने मिलकर मामाजी को समय के पहले ही समझदार बना दिया।मामाजी ने भी परिवार के भरण पोषण के लिए कुछ करने की ठानी।शरीर हृष्ट पुष्ट था।उन दिनों मनोरंजन के लिए रामलीला एवं नाटक का प्रचलन था।लोगों की भाीड़ उमड़ती थी ऐसे कार्यक्रमों को देखने के लिए।
        यहां से मामाजी के जीवन ने एक नई शुरूआत की।मामाजी रंगमंच एवं रामलीला में अभिलनय करने लगे।इसमें उनके छोटे भाई भी उनका साथ देने लगे।धीरे धीरे कलाकार के रूप में परिपक्व होते गए एवं इस क्षेत्र में नाम कमाते गए।रंगमंच पर अधिकतम खलनायक की  भूमिका करते थे।कभी बाली तो कभी रावण,कभी कंस तो कभी सुल्ताना डाकू ।ऐसा सजीव अभिनय करते थे कि जैसे वह पात्र जीवंत हो उठा हो।'भाईजी' के नाम से कई शहरों में उन्हें जाना जाने लगा था।बंगाल से लेकर दिल्ली तक उनके अभिनय की तारीफ होती थी।उन्हीं दिनों की एक घटना का जिक्र उन्होंने किया जिसे सुनकर हम हंसते हंसते लोटपोट हो गए।दरअसल परिस्थिति के अनुसार हास्य कैसे मंचन किया जाता है इसका यहा ज्वलंत उदाहरण है यह घटना।
        नाटक का मंचन चल रहा था। एक आदमी मामाजी के छोटे भाई से बार बार आग्रह कर रहा था कि उसे भी एक बार मंच पर आकर अभिनय करने का मौका दें।टालते टालते दो दिन हो गया था पर वह मान नहीं रहा था। अनंतः दूसरे दिन मामाजी को उसे मौका देना पड़ा।उससे उन्होंने कहा कि तुम मंच पर आकर माईक और दर्शकों की ओर देखते हुए तीन बार कहोगे “मैं कौन हूं।'
        सुझाव के अनुसार वो मंच पर आकर बार  “मैं कौन हूं' तीन बार बोला।उसका वाक्य खत्म ही हुआ था कि मामाजी पर्दे के पीछे से बाहर निकले और जोर से बोले, 'तुम बेबकूह हो, गधे हो, सनकी–पागल हो।'
        इतना सुनते ही उसने गर्दन झुका लिया तथा गालियां बकता हुआ मामाजी के पीछे दौड़ पड़ा।
        दर्शक ठहाके लगाकर हंसते हंसते लोटपोट हो गए।मामाजी मंच से भागे और फिर मंच पर वापस।
        बहादुरी में तो मामाजी जैसे मिसाल थे।एकबार दिल्ली रेलवे स्टेशन पर गाडी के आने का इंतजार कर रहे थे।उन दिनों एक अनोखे ढंग की ठगी होती थी दिल्ली में।चलते चलते अचानक एक आदमी अपना बटुआ गिरा देगा।ऐसा जान पड़ता है मानो अनजाने में उससे ऐसा हो गया हो।पीछे से दूसरा आकर उसे उठा लेगा।तबतक एक तीसरा भी प्रकट हो जायेगा और देखने लगेगा कि उस बटुए में क्या है।इस क्रम में दोनों आपस में झगड़ा करने का अभिनय करेंगे।फैसला करवाने के लिए पास के किसी राहगीर के पास जाएंगे और कहेंगे कि इस बटुए में सोना निकला है।दिखा भी देंगे।फिर बंटवारे के नाम पर आपको प्रलोभन देंगे कि इस सोने को एकदम मिट्टि के भाव बेच रहे हैं आप खरीद लें।वस्तु देखने में सोना है प्रतीत होगी पर वास्तव में नकली सोना होता है।यह सब कुछ सुनियोजित ढम्ग से किसी यात्री को लक्ष्य करके किया जाता था।इस झांसे में कई लोग फंस कर धोखा खा जाते हैं।ऐसा अब भी होता है पर प्रकार बदल गया है।मामाजी को भी लक्ष्य करके ऐसी विसात बिछाई गई।सोना गिरा और लोग इसे लेकर मामाजी के पास बेचने का बहाना करके आए। ाांमाजी ने ऐसे हतकंडे बहुत देखे थे।उन्होंने उनपर दोहरी चाल चली।पहले से ही सोचकर बैठे थे कि चार पर तो भारी पड़ते है थे एक दो और आ जाएं तो कोई बात नहीं।इनको क्या ठगते।मामाजी ने उन दोनों को पकड़ लिया और सोना छीन लिया यह कहते हुए कि जिसका बटुआ गिरा था वह मेरा भाई है।लाओ इसे मुझे देकर चलता बनो वर्ना बहुत मार मारूंगा।
        अब बारी उन ठगों की थी हैरान होने की।लेकिन ठग तो ठग ही ठहरे।वे एक और हथकंडा चले, पुलिस को बुलाने की।पुलिस के वेष में उनका अपना ही आदमी था।धौंस एवं घूसों की बौछार चली पर जब तीनो को दबोचे मामाजी उनपर चढ़ बैठे तो ठगों ने हाथ जोड़ लिया और मामाजी से माफी मांगत हुए वहां से रफूचक्कर  हो गए।
        बहुमुखी प्रतिभा के तो थे ही, कला के साथ साथ ज्योतिष एवं तंत्र–मंत्र का भी ज्ञान रखते थे और समय असमय इस विद्या के सहारे लोगों की मदद भी किया करते थे।अच्छे ज्योतिष ज्ञान के धनी होने के कारण लोगो लोगों के खोए हुए सामान अथवा गुम हुए लोगों का लगभग सटीक पता बता देते थे।इनके इस सेवा कार्य ने एक दिन उनको जेल की भी यात्रा करवा दिया।हुआ कुछ यूं कि एक दिन एक सज्जन जिनका लड़का कहीं खो गया था, अपने बच्चे के बारे में पता लगाने के लिए इनके पाास आए।मामाजी ने बच्चा किस शहर में है तथा कि स्थान पर है गणना करके बताया।लोगों को बच्चा मिल गया।बच्चे के पिता ने मामाजी पर अभियोग लगाया कि उसे 'मामाजी' ने ही गायब करवा दिया था।बेचारे बुर फंसे।बाद में किसी तरह से छूट कर आए।
        कहते हैं कि कलाकार का दिल बहुत बड़ा होता है पर उम्र के ढलान से उसकी प्रसिद्धि,तेज एवं नाम सबकुछ ढलने लगता है। वक्त के साथ अंतिम पड़ाव के कुछ दिनों पहले मधुमेह के सिकंजे में ऐसा फंसे कि एक समय आया जब दशा खराब हो गई,सही चिकित्सा के अबाव में असमय ही दुनियां से कूच कर गए,पर यादों के झरोखों में लगता है जैसे अब भी कहीं आसपास ही बैठे हों अपने बीते समय के किस्से सुनाते हुए।

बक्रेशवर : एक अनोखा धर्मस्थल


        उन दिनों मैं कलकत्ता में था।चिकित्सा कार्य में संलग्न होने के कारण लायंस क्लब की ओर से आयोजित नेत्र जांच शिविरों में शामिल होता रहता था।एक दिन लायन्स क्लब हावड़ा की ओर से तीन दिवसीय आई कैंप में जाने का आमंत्रण मिला।इतनी लम्बी अवधि का कार्यक्रम पहली बार मिला था और फिर नया स्थान देखने का लोभ मैं झट से तैयार हो गया।लगभग 20 ऑप्टोमेट्रिस्टों का दल इस अभियान में शामिल हुआ।पूरे क्षेत्र के  ऑप्टोमेट्रिस्ट इसमें शामिल थे।

        पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में 'सूरी' सबडिवीजन में आता है यह स्थान।हमारी यात्रा बस द्वारा 'हावड़ा मैदान' के 'लायंस हास्पिटल' से शुरू हुई।सभी अलग अलग स्थानों से आए हुए थे लिहाजा जान पहचान बनाने में कुछ वक्त लग गया।लगभग पंद्रह बीस मिनट के बाद हम सब एक दूसरे को जानने–पहचानने लगे थे।उन दिनों बंगाल की राजनीति में उथल पुथल मचाने वाली एक घटना चल रही थी 'सिंगुर' में 'टाटा मोटर' की नैनो परियोजना को लेकर।अखबारों में तो बहुत कुछ पढ़ने को मिलता था पर उस स्थान को देखने का अवसर इस यात्रा के दौरान हो गया।हमारे गंतब्य के रास्ते में यह स्थान भी मिला।सचमें एक लम्बा चौड़ा इलाका इस काम के लिए लिया गया था,ठीक सड़क के किनारे।चलते रहे हम यँू ही नजारे देखते हुए और नए गीतों के छम्द सुनते हुए।लगभग डेढ़ घंटे की यात्रा करके हम 'बक्रेश्वर' पहुंच गए।

        बक्रेश्वर जैसा कि नाम से ही परिलक्षित होता है, इस स्थान का नाम मुनि अष्टाबक्र के नाम पर रखा गया है।यहां के मंदिर में सबसे अलग बात यह देखने में आता है कि भगवान के पहले भक्त की पूजा की जाती है यानि की 'ऋषि अष्टाबक' की पूजा भगवान शिव की पूजा के पहले की जाती है।ऐसा विश्वास है कि ऋषि अपने समय के विद्वानों में से सर्वोपरि थे।उन्होंने यहां वर्षों भगवान शिव की तपस्या की जिसके फलस्वरूप उन्हें भगवान का आशिर्वाद प्राप्त हुआ।

        नेत्र जांच कैंप यहां के एक आश्रम में लगाया गया था जहां हमारे भोजन का भी प्रबंध था।एक सुदूर ग्रामांचल जहां सुविधाओं के नाम पर शायद कुछ खास नहीं पर एक तीर्थ स्थान एवं भ्रमणस्थल है।साधारण से रहन सहन वाले सच्चे एवं सीधे सादे लोग।चिकित्सा सुविधाएं भी लगभग साधारण ही उपलब्ध।लायंस क्लब की ओर से यहां हर तिमाही इस प्रकार का कैंप लगाया जाता है जिसमें निःशुल्क नेत्र जांच, निःशुल्क चश्मा वितरण एवं आवश्यकतानुरूप शहर लेजाकर 'मोतियाबिंद' के मरीजों का निःशुल्क आपरेशन कराया जाता है।इस कैंप के दौरान यहां के युवा हमारे कार्य में सहयोग भी दे रहे थे तथा यहां के बारे में हमें बता भी रहे थे।यही युवा यात्रियों के लिए गाईड का भी काम करते हैं।

        शाम के समय हम पास के बाजार गए।दशहरा का समय था। बाजार में काफी चहल पहल थी।एक मेला सा लगा हुआ था।ज्यादातर लोग या तो ग्राम्ीण थे या आदिवासी।इनकी भाषा एवं संस्कृति में बंग्ला और भोजपुरी्रझारखंडी भाषा का मेल था।लगता था जैसे यहां आने के बाद बंगला भाषा से मिलकर इन आदिवासियों की भाषा मिली जुली भाषा हो गई हो।शायद इस भाषा को कोई नाम अबतक ना मिला हो क्योंकि पूछने पर लोग इस भाषा का नाम नहीं बता पाए।बहुत ही रंगीन माहौल था।अपने अपने कामों से फारिग होकर हर व्यक्ति  खरिददारी में लगा हुआ था।ऐसा लग रहा था कि यहां  समय एवं काल के हिसाब से बाजार शायद रात में ही लगती है।आवश्यकता एवं उपयोग की हर सामग्री उपलब्ध है।

        दूसरे दिन हम कैंप की जिम्मेदारियों से कुछ हल्का हुए।हमने यहां के दर्शनीय स्थानों पर जाने का कार्यक्रम बनाया।चिकित्सा कैंप में सहायता कर रहे स्थानीय युवा हमारे साथ हो लिए।अधिकतर ये युवा या तो गाईड का काम करते हैं या फिर मंदिर में पुरोहित का।बहुत ही खुशमिजाज एवं व्यवहार कुशल।इस स्थान के बारे में अधिकांश जानकारी उनलोगों द्वारा ही मिली।सबसे पहले हम 'अष्टाबक्र महाराज ' के मंदिर में गए।वहीं से हमारे देव दर्शन की यात्रा शुरू हुई।मंदिर के अंदर माता 'आदि शक्ति' का मंदिर है।कहते हैं कि माता सती के वियोग में जब भगवान शिव उनके शरीर को लिए हुए विक्षिप्त से होकर फिर रहे थे, भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र की सहायता से सती के शरीर के कई टुकड़े किए थे।वो अंश जहां जहां गिरे वहां एक शक्तिपीठ की स्थापना हुई।ऐसे 51 शक्तिपीठ  हैं जिनमें में से एक शक्तिपीठ यहां भी है।यहां माता के भौंहें गिरे थे।अब तो भौंहों के रूप में वहां पाषाण शिला के अंश हैं जिन्हें छूकर अनुभूति की जा सकती है।बड़ा ही पावन स्थल है।

        यहां से कुछ दूरी पर एक ताप विद्युत केंद्र है।इस स्थान की सबसे अनोखी बात यह है कि मंदिर के पास ही दस कुंड बने हुए हैं जिनमें से अधिकांश में से खौलते हुए पानी को निकलता हुआ देखा जा सकता है।इन खौलते हुए जल का तापमान कहीं 65 से लेकर 80 डिग्री सेल्सीयस तक होता है।अलग अलग नामों से अलंकृत अलग अलग कुंड ।इन कुंडों को गंगा का ही रूप माना जाता है तथा इनके नाम के साथ गंगा शब्द जुड़ा हुआ है जैसेः पापहरण गंगा, बैतरणी गंगा, खार कूंड, भैरव कुंड, अग्नि कुंड, दूध कुंड, सूर्य कुंड, श्वेत गंगा, ब्रम्ह कुंड, अम्रित कुंड।इन कुंडों से निकलने वाले जल में बहुत सारे रसायन मिले हुए हैं और कहा जाता है कि इनमें औषधीय गुण भी है।स्थानीय लोगों के अनुसार गर्म जल के इन कुंडों के रहस्य को जानने के लिए खोज एवं जांच कार्य जारी है।
        तीन दिनों का यहां का सफर हमारे लिए एक अवसर दे गया कि हम अपने देश के ऐसे सुदूर स्थानों पर स्थित लोगो एवं संस्कृति को देख और जान सकें।रेल तथा सड़क मार्ग से भी यहां पहुंचा जा सकता है।हावड़ा स्टेशन से लोकल ट्रेन बहुतायत रूप में उपलब्ध हैं।

       

ओ माई गॉड

       हमारे एक परिचित शिक्षक हैं।बहुत ही ज्ञानी एवं सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी।सही मायने में ज्ञानी इसलिए भी कि अहंकार तो जैसे रत्तीभर भी ना हो।एक दिन उनसे मिलने गया। घर में उनके परिवार के अन्य सदस्यों के अलावा एक बयोवृद्ध माताजी भी हैं जिनका वो तन मन से ख्याल रखते हैं।पूर्ण रूपेण नास्तिक तो नही ंहैं पर बेकार के आडंबरों से बिल्कुल दूर रहना चाहते हैं. ।वहीं माताजी उनके एकदम उलट  एकदम धर्मभीरू एवं भक्तिभावना से ओत प्रोत।मां  बेटे में मिठी नोंकझोंक होने लगी ।साहब माताजी को तीर्थयात्रा पर लेकर गए थे।कुछ तो उम्र का प्रभाव तो कुछ यात्रा की कठिनाइयां Ê माताजी रास्ते में ही बीमार हो गईं।तीर्थ तक पहुंच तो गईं पर बीमारी के कारण भगवत दर्शन का आनंद नहीं ले पााईं।साहब ने कहा कि जब पूरे राह आंखें बंद ही रहीं तो ताीर्थ जाना तोा व्यर्थ ही गया । आजकल जब इंटरनेट पर जब सबकुछ उपलब्ध है तो वहां जाकर धक्का खाकर यह सब सहने की क्या जरूरत है।उन दिनों जब संचार माध्यम एवं यात्रा के साधन बहुत कम थे तब चार धाम की यात्रा के पीछे  उद्देश्य था कि लोग इसी बहाने से अपने क्षेत्र से बाहर निकलें और अन्य स्थानों पर धाम  दर्शन के नाम पर उन स्थानों की संस्कृति का आनन्द लेंÊएक दूसरे की संस्कृति को जानें।आज के युग में सिर्फ दर्शन के लिए जाने का कोई औचित्य नहीं और वो भी तब जबकि आपका शरीर इस बात के लिए तैयार ना हो।मााताजी का तर्क था कि इसी बहाने तुमने मां की सेवा का लाभ ले लिया।किसी भी तरह से माताजी अपने विचारधरा को बदलने की बात सोच ही नहीं सकती हैं।होना भी नहीं चाहिए। आखिर हमारा देशा धर्म के लिए ही तो सदियों से जाना जाता है।

        भारत के हर प्रान्त में विभिन्न रूप में भगवान की अर्चना की जाती है ।बंगाल में दुर्गा पूजा,महाराष्ट्र में गणपति की तो ऐसे ही हर प्रान्तवासी अपने अपने हिसाब से त्यौहारों को मनाता है। त्यौहारों का मौसम आते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है।हर तरफ एक अनोखा उल्लास और खुशहाली का माहौल हो जाता है।लोग पहले से ही इसके लिए तैयारियों में जुट जाते हैं।कहीं कपड़ो की खरीददारी होने लगती है तो कहीं गहनों की।सारा बाजार सजीव हो उठता है।लगता है कि अबकी कमाई हो गई तो फिर कई दिनों तक काम करने की जरूरत महसूस नहीं होगी।आलम ऐसा होता है कि हमारे देश के इन त्यौहारों की धूम विदेशों तक में फैल जाती है।आयोजनों के लिए एक से एक संस्थाएं आगे आती हैं।बढ़–चढ़कर चंदा उगाही की जाती है।यह सिर्फ इसलिए कि खूब धूमधाम से पूजा मंडप को सजाया जा सके और उसमें अलंंकृत भगवान की प्रतिमा को विराजमन किया जा सके।देखने वाला जो भी आए, मंत्रमुग्ध हो जाए और फर इस छटा को अपने में समेटे यादों तक में ले कर जाए।धूमधाम से सारा आयोजन संपन्न हो जाता है और फिर निश्चित दिन मूर्ति विसर्जन का समय आता है।यही एक परंपरा है जे मेरे मन पर इस प्रकार के आयोजनों के प्रति एक नाकारात्मक छाप छोड़ती है ।ऐसा नहीं की मैं एकदम नास्तिक प्रकृति का इंसान हूँ या फिर नाकारत्मक सोच वाला पर बाद की दशा देखकर मै कुछ हताश सा अवश्य हो जाता हूँ।विसर्जन के दिन इन मूर्तियों को या तो जल में डुबो दिया जाता है या फिर जहॉ जल की कमी है वहॉं सड़कों के किनारे छोड़ दिया जाता है धूप,बारिष,मौसम के थपेड़ों से टकराकर कालकलवित होने के लिए। चलिए मान लेते हैं कि इस प्रक्रिया द्वारा यह साबित किया जाता है कि जिसने भी जन्म लिया है उसको एक न एक दिन पंच तत्व में विलीन होना ही पड़ता है और फिर इन मूर्तियों को पंचतत्व में विलीन करके हम इस बात का अहसास भी कर लेते हैं।पर क्या यह सर्वथा उचित लगता है कि हम जिसकी धूमधाम से पूजा–अर्चना करते हैं उसे सड़क के किनारे यूँ ही अकेला छोड़ देते हैं प्रकृति के भरोसे कालकलवित होने के लिए ? क्या यह उनका सरासर अपमान नहीं है? क्या यह तरीका सर्वथा उचित है?

         शायद यही एक वजह है कि 'राजा राम मोहन राय' जैसे लोगों ने मूर्तिपूजा का  विरोध किया था।मूर्तिपूजा हो सकता है कि ध्यान लगाकर साधना करने का एक साधन मात्र हो पर इसका इस प्रकार से समापन तो कहीं भी किसी भी रूप में उचित नहीं लगता है।

        कल की ही बात है, छोटे भाई कहीं से एक फिल्म “ओ माई गॉड” की सीडी लाए।हम सबने एक साथ बैठकर इसका आनंद लिया।सचमुच में इसकी 'थीम' बहुत ही अच्छी है।वैसा ही जैसा कि मैं सोचा करता था।कृपया अन्यथा ना लें ना ही तो मेरे मन में ऐसी कोई भावना है कि मैं भगवान को न मानने वाला हूं या फिर किसी घटना के लिए संपूर्ण रूप से भगवान को दोषी मानकर उनके खिलाफ चढ़ दौड़ू  जैसा कि फिल्म के कलाकार 'परेश रावलजी' ने किया। जब हमपर कोई आफत या फिर इम्तहान का समय होता है, हम पहुॅच जाते हैं रिश्वत की अर्जी लेकर भगवान के द्वारे पर और फिर मोलभाव की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है।इसका कुछ ज्यादा ही भुक्तभोगी रहा हूँ मैं।

        'कलकत्ता प्रवासी' होने के कारण 'ंमां काली' में हमारी काफी आस्था रही है।हम ही क्यों कलकत्ता के बाहर रहने वाले धार्मिक प्रवृति का यदि कोई भी होगा और उसे कलकत्ता जाने का मौका दिया जाय और पूछा जाय कि वहां जाकर क्या देखना चाहेगा तो सबसे पहले उसके जुबान पर 'कलकत्ते की मां काली' का नाम ही आएगा।सचमुच बड़ी कृपा बरसाने वाली हैं मातृरूप देवियां।मैं भी दर्शन की अभिलाषा लिए जा पहुॅचा 'कालीघाट'।'कालीघाट'  मेट्रो रेल का एक स्टेशन है जहॉं से मंदिर बिल्कुल पास में ही है।स्टेशन से जैसे ही बाहर आया  मस्तक पर तिलक लगाए हुए धोतीधारी एक सज्जन मिल गए कहा. 'सुलभ ढंग से मां के दर्शन करवा दुंगा'। म्ंौने पूछा आप कौन हैं तो जवाब मिला कि हम 'पंडा' हैं।ऐसे ही वेशभूषा में कई और लोग मिल गए जो कि यात्रियों को 'सुविधा' प्रदान करते हैं 'ंमां काली ' के दर्शन करवाने में। थोड़ी सी मोलभाव के बाद हमारी डील पक्की हो गई और हम दर्शन के लिए निकल पडे.।यहीं से शूरूआत हुई आस्था के नाम पर मोलभाव की।कुछ नीचेÊकुछ ऊपर ले दे कर मंदिर के प्रवेशद्वार पर पहुचे।पूरी आस्था के साथ मन प्रसन्न हो रहा था कि माताजी के चरणों में वंदना करने की बरसों की मुराद आज पूरी होने जा रही है।पर मंदिर के अम्दर तो और भी गोरखधंधा बना पड़ा था। रस्सी के सहारे माता की प्रतिमा के पास लटकने वाले पंडे बार बार उकसा रहे थे कि माता के भोग के लिए कुछ दोÊमाता की आरती के लिए कुछ दोÊअपने कल्याण के लिए कुछ दो और जो कुछ भी था उसकी संख्या पंद्रह सौ रूपए से ही शुरू हो रही थी।भीड़ के धक्के से मै और मेरे परिवार का हर सदस्य जैसे कुचल जा रहा था।पर ये मुए ऐसे थे जो कि बस निचोड़ने के प्रयास में लगे हुए थे।ऐसे माहौल में जहां संत्री से लेकर पुजारी सभी लुटेरे के समान आप पर हावी हो रहे हों तब मन की श्रद्धा गायब होकर क्रोध का रूप लेने लगती है और लगता है कि हम कहां आ गए जानबूझकर खुद को लुटवाने।

        ऐसा नहीं की यह बात सिर्फ कलकत्ते तक ही सीमित हो।यह सब भारत के लगभग हर बडे मंदिरों मै है जहॉ भक्त को भगवान से ज्यादा कुछ मिलने की आशा होती है अन्य शब्दों में जहां से अधिक एवं तुरंत कृपा मिलने की बात सुनी जाती है।

        अब भक्त  को भगवान से मिलकर उनका सानिध्य एवं आशिर्वाद लेना है पर इस प्रकार की क्रिपा पााने की राह हमें और कुछ दे या ना दे पर एक सीख तो दे ही देता है और वह यह है कि हम अपनी जेब को कटने से बचाने का हर प्रयास करने लग जाते हैं जो कि आस्था के सामने एक असफल प्रयास होता है एवं देव भक्ति के कारण क्रोध प्रकट ना करके उसे पीने एवं सहने की आदत सीख लेते हैं

नागमणी

        क्या आपने कभी नागमणी देखा है, या फिर इस बात में यकीन रखते हैं कि नागमणी का कोई अस्तित्व भी होता होगा?
        यूं तो नागमणी के विषय में मैने बहुत सारी चर्चाएं सुना है।अधिकतर ज्ञानी लोगों ने यही कहा कि नागमणी जैसी कोई चीज नहीं होती पर वहीं दूसरी ओर लोक कथाएं एवं दंत कथाएं ऐसी कहानियों से भरी हुई हैं जिनमें नागमणी क बारे मे जिक्र आ ही जाता है।बॉलीवुड की फिल्मों को देखें तो ऐसी फिल्मों की भरमार सी लगी हुई है।अब पता नहीं नागमणी होता भी है या नहीं पर लोगों से पूछें तो अधिकांश लोग इसे तथ्य ही मानते हैं।यह घटना मुझे मेरे एक मित्र की पत्नी ने सुनाया।हमलोग बैठे 'नगीना' देख रहे थे।फिल्म के दौरान ही बात कुछ यूं शुरू हुई ,मैडम ने बताना शुरू किया।
        एक बार रात का समय था।माताजी गांव में थीं।पिताजी किसी काम से बाहर निकले हुए थे।उनको देखने के लिए माताजी छत से उतरकर नीचे मुख्य द्वार की ओर जाने लगीं।मुख्य द्वार के पास ही एक कमरे में जानवरों के लिए भूसा तथा बेकार की चीजें पड़ी रहती थीं।दरवाजा खुला था।खुला दरवाजा देखकर माताज्ी बड़बड़ाते हुए उसे बंद करने के लिए बढ़ीं।तभी उनकी नजर जमीन पर पड़े एक चमकती चीज पर पड़ी।छोटा सा टुकड़ा था पर उसमें से एक अनोखी सी रोशनी निकल रही थी।माताजी कुछ समझ नहीं पाईं कि क्या है 'वो'।उन्होंने उसे हाथों में उठा लिया।पूरा कमरा जैसे रोशन हो गया हो।कहीं हाथों से छूटकर गिर न जाए इसलिए उसे उन्होंने अपने आंचल में  लपेट लिया।
        अरे यह क्या? रोशनी अब भी निकल रही थी और वो भी आंचल को जैसे चीरकर रोशन करने को उतारू हो रही थी।तबतक बाहर से पिताजी की आवाज आई।पिताजी बाहर से आ गए थे तथा माताजी को पुकार रहे थे।पिताजी को शायद जल्दी थी।माताजी हड़बड़ाहट में उसे पास ही के एक बक्से पर रख कर पिताजी को सुनने के लिए आगे बढ़ीं।जैसे ही उस वस्तु को बक्से पर रखा कही से तीर की तरह सनसनाता हुआ एक विशाल सांप आयाÊ उस वस्तु को निगला और वापस मुड़कर कही निकल गया।विशाल सर्प को देखकर माताजी की घिग्घी बंध गई।जहां थीं वहीं जड़ बनकर रह गईं।आवाज देने के बाद भी जब माताजी की ओर से कोई जवाब नहीं मिला तो पिताजी ने कमरे में प्रवेश किया।माताजी को जड़ अवस्था में देखकर उन्होंने हिलाया और पूछा कि माजरा क्या है।माताजी ने सारा किस्सा बयान किया।अब तो घर में जैसे भूचाल आ गई।सभी सांप को ढूंढने निकल पड़े कि कहीं किसी घर में कहीं रह गया तो किसी को काट ना ले।पूरा घर देख लिया गया पर 'वो' नहीं मिला।
        थोड़ा आश्वस्त होने के बाद माताजी ने घरवालों को यह वाकया बताया।तब मैं कक्षा 10 में पढ़ती थी।लोगों ने माताजी को तरह तरह से कहना शुरू किया।निचोड़ यह था कि हाथ आया हुआ भाग्य आज हाथ से निकल गया।यदि वो मणी माताजी ने संभालकर छुपा दिया होता तो आज हमारे घर की दशा कुछ और ही होती पर भाग्य को शायद कुछ और ही म्ांजूर था।
        मन के किसी कोने में आज भी यह कसक है कि आया हुआ धन का मार्ग वापस चला गया।यदा कदा वह सर्प घर के आसपास घूमता हुआ दिखा तो जरूर पर नागमणी का कुछ भी पता नहीं चला।
       

O MY GOD



ओ माई गॉड
       
हमारे एक परिचित शिक्षक हैं।बहुत ही ज्ञानी एवं सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी।सही मायने में ज्ञानी इसलिए भी कि अहंकार तो जैसे रत्तीभर भी ना हो।एक दिन उनसे मिलने गया। घर में उनके परिवार के अन्य सदस्यों के अलावा एक बयोवृद्ध माताज्ी भी हैं जिनका वो तन मन से ख्याल रखते हैं।पूर्ण रूपेण नास्तिक तो नही ंहैं पर बेकार के आडंबरों से बिल्कुल दूर रहना चाहते हैं. ।वहीं माताजी उनके एकदम उलट  एकदम धर्मभीरू एवं भक्तिभावना से ओत प्रोत।मां  बेटे में मिठी नोंकझोंक होने लगी ।साहब माताजी को तीर्थयात्रा पर लेकर गए थे।कुछ तो उम्र का प्रभाव तो कुछ यात्रा की कठिनाइयां Ê माताजी रास्ते में ही बीमार हो गईं।तीर्थ तक पहुंच तो गईं पर बीमारी के कारण भगवत दर्शन का आनंद नहीं ले पााईं।साहब ने कहा कि जब पूरे राह आंखें बंद ही रहीं तो ताीर्थ जाना तोा व्यर्थ ही गया । आजकल जब इंटरनेट पर जब सबकुछ उपलब्ध है तो वहां जाकर धक्का खाकर यह सब सहने की क्या जरूरत है।उन दिनों जब संचार माध्यम एवं यात्रा के साधन बहुत कम थे तब चार धाम की यात्रा के पीछे  उद्देश्य था कि लोग इसी बहाने से अपने क्षेत्र से बाहर निकलें और अन्य स्थानों पर धाम  दर्शन के नाम पर उन स्थानों की संस्कृति का आनन्द लेंÊएक दूसरे की संस्कृति को जानें।आज के युग में सिर्फ दर्शन के लिए जाने का कोई औचित्य नहीं और वो भी तब जबकि आपका शरीर इस बात के लिए तैयार ना हो।मााताजी का तर्क था कि इसी बहाने तुमने मां की सेवा का लाभ ले लिया।किसी भी तरह से माताजी अपने विचारधरा को बदलने की बात सोच ही नहीं सकती हैं।होना भी नहीं चाहिए। आखिर हमारा देशा धर्म के लिए ही तो सदियों से जाना जाता है।
        भारत के हर प्रान्त में विभिन्न रूप में भगवान की अर्चना की जाती है ।बंगाल में दुर्गा पूजा,महाराष्ट्र में गणपति की तो ऐसे ही हर प्रान्तवासी अपने अपने हिसाब से त्यौहारों को मनाता है। त्यौहारों का मौसम आते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है।हर तरफ एक अनोखा उल्लास और खुशहाली का माहौल हो जाता है।लोग पहले से ही इसके लिए तैयारियों में जुट जाते हैं।कहीं कपड़ो की खरीददारी होने लगती है तो कहीं गहनों की।सारा बाजार सजीव हो उठता है।लगता है कि अबकी कमाई हो गई तो फिर कई दिनों तक काम करने की जरूरत महसूस नहीं होगी।आलम ऐसा होता है कि हमारे देश के इन त्यौहारों की धूम विदेशों तक में फैल जाती है।आयोजनों के लिए एक से एक संस्थाएं आगे आती हैं।बढ़–चढ़कर चंदा उगाही की जाती है।यह सिर्फ इसलिए कि खूब धूमधाम से पूजा मंडप को सजाया जा सके और उसमें अलंंकृत भगवान की प्रतिमा को विराजमन किया जा सके।देखने वाला जो भी आए, मंत्रमुग्ध हो जाए और फर इस छटा को अपने में समेटे यादों तक में ले कर जाए।धूमधाम से सारा आयोजन संपन्न हो जाता है और फिर निश्चित दिन मूर्ति विसर्जन का समय आता है।यही एक परंपरा है जे मेरे मन पर इस प्रकार के आयोजनों के प्रति एक नाकारात्मक छाप छोड़ती है ।ऐसा नहीं की मैं एकदम नास्तिक प्रकृति का इंसान हूँ या फिर नाकारत्मक सोच वाला पर बाद की दशा देखकर मै कुछ हताश सा अवश्य हो जाता हूँ।विसर्जन के दिन इन मूर्तियों को या तो जल में डुबो दिया जाता है या फिर जहॉ जल की कमी है वहॉं सड़कों के किनारे छोड़ दिया जाता है धूप,बारिष,मौसम के थपेड़ों से टकराकर कालकलवित होने के लिए। चलिए मान लेते हैं कि इस प्रक्रिया द्वारा यह साबित किया जाता है कि जिसने भी जन्म लिया है उसको एक न एक दिन पंच तत्व में विलीन होना ही पड़ता है और फिर इन मूर्तियों को पंचतत्व में विलीन करके हम इस बात का अहसास भी कर लेते हैं।पर क्या यह सर्वथा उचित लगता है कि हम जिसकी धूमधाम से पूजा–अर्चना करते हैं उसे सड़क के किनारे यूँ ही अकेला छोड़ देते हैं प्रकृति के भरोसे कालकलवित होने के लिए ? क्या यह उनका सरासर अपमान नहीं है? क्या यह तरीका सर्वथा उचित है?
         शायद यही एक वजह है कि 'राजा राम मोहन राय' जैसे लोगों ने मूर्तिपूजा का  विरोध किया था।मूर्तिपूजा हो सकता है कि ध्यान लगाकर साधना करने का एक साधन मात्र हो पर इसका इस प्रकार से समापन तो कहीं भी किसी भी रूप में उचित नहीं लगता है।
        कल की ही बात है, छोटे भाई कहीं से एक फिल्म “ओ माई गॉड” की सीडी लाए।हम सबने एक साथ बैठकर इसका आनंद लिया।सचमुच में इसकी 'थीम' बहुत ही अच्छी है।वैसा ही जैसा कि मैं सोचा करता था।कृपया अन्यथा ना लें ना ही तो मेरे मन में ऐसी कोई भावना है कि मैं भगवान को न मानने वाला हूं या फिर किसी घटना के लिए संपूर्ण रूप से भगवान को दोषी मानकर उनके खिलाफ चढ़ दौड़ू  जैसा कि फिल्म के कलाकार 'परेश रावलजी' ने किया। जब हमपर कोई आफत या फिर इम्तहान का समय होता है, हम पहुॅच जाते हैं रिश्वत की अर्जी लेकर भगवान के द्वारे पर और फिर मोलभाव की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है।इसका कुछ ज्यादा ही भुक्तभोगी रहा हूँ मैं।
        'कलकत्ता प्रवासी' होने के कारण 'ंमां काली' में हमारी काफी आस्था रही है।हम ही क्यों कलकत्ता के बाहर रहने वाले धार्मिक प्रवृति का यदि कोई भी होगा और उसे कलकत्ता जाने का मौका दिया जाय और पूछा जाय कि वहां जाकर क्या देखना चाहेगा तो सबसे पहले उसके जुबान पर 'कलकत्ते की मां काली' का नाम ही आएगा।सचमुच बड़ी कृपा बरसाने वाली हैं मातृरूप देवियां।मैं भी दर्शन की अभिलाषा लिए जा पहुॅचा 'कालीघाट'।'कालीघाट'  मेट्रो रेल का एक स्टेशन है जहॉं से मंदिर बिल्कुल पास में ही है।स्टेशन से जैसे ही बाहर आया  मस्तक पर तिलक लगाए हुए धोतीधारी एक सज्जन मिल गए कहा. 'सुलभ ढंग से मां के दर्शन करवा दुंगा'। म्ंौने पूछा आप कौन हैं तो जवाब मिला कि हम 'पंडा' हैं।ऐसे ही वेशभूषा में कई और लोग मिल गए जो कि यात्रियों को 'सुविधा' प्रदान करते हैं 'ंमां काली ' के दर्शन करवाने में। थोड़ी सी मोलभाव के बाद हमारी डील पक्की हो गई और हम दर्शन के लिए निकल पडे.।यहीं से शूरूआत हुई आस्था के नाम पर मोलभाव की।कुछ नीचेÊकुछ ऊपर ले दे कर मंदिर के प्रवेशद्वार पर पहुचे।पूरी आस्था के साथ मन प्रसन्न हो रहा था कि माताजी के चरणों में वंदना करने की बरसों की मुराद आज पूरी होने जा रही है।पर मंदिर के अम्दर तो और भी गोरखधंधा बना पड़ा था। रस्सी के सहारे माता की प्रतिमा के पास लटकने वाले पंडे बार बार उकसा रहे थे कि माता के भोग के लिए कुछ दोÊमाता की आरती के लिए कुछ दोÊअपने कल्याण के लिए कुछ दो और जो कुछ भी था उसकी संख्या पंद्रह सौ रूपए से ही शुरू हो रही थी।भीड़ के धक्के से मै और मेरे परिवार का हर सदस्य जैसे कुचल जा रहा था।पर ये मुए ऐसे थे जो कि बस निचोड़ने के प्रयास में लगे हुए थे।ऐसे माहौल में जहां संत्री से लेकर पुजारी सभी लुटेरे के समान आप पर हावी हो रहे हों तब मन की श्रद्धा गायब होकर क्रोध का रूप लेने लगती है और लगता है कि हम कहां आ गए जानबूझकर खुद को लुटवाने।
        ऐसा नहीं की यह बात सिर्फ कलकत्ते तक ही सीमित हो।यह सब भारत के लगभग हर बडे मंदिरों मै है जहॉ भक्त को भगवान से ज्यादा कुछ मिलने की आशा होती है अन्य शब्दों में जहां से अधिक एवं तुरंत कृपा मिलने की बात सुनी जाती है।
        अब भक्त  को भगवान से मिलकर उनका सानिध्य एवं आशिर्वाद लेना है पर इस प्रकार की क्रिपा पााने की राह हमें और कुछ दे या ना दे पर एक सीख तो दे ही देता है और वह यह है कि हम अपनी जेब को कटने से बचाने का हर प्रयास करने लग जाते हैं जो कि आस्था के सामने एक असफल प्रयास होता है एवं देव भक्ति के कारण क्रोध प्रकट ना करके उसे पीने एवं सहने की आदत सीख लेते हैं।
बक्रेशवर : एक अनोखा धर्मस्थल
        उन दिनों मैं कलकत्ता में था।चिकित्सा कार्य में संलग्न होने के कारण लायंस क्लब की ओर से आयोजित नेत्र जांच शिविरों में शामिल होता रहता था।एक दिन लायन्स क्लब हावड़ा की ओर से तीन दिवसीय आई कैंप में जाने का आमंत्रण मिला।इतनी लम्बी अवधि का कार्यक्रम पहली बार मिला था और फिर नया स्थान देखने का लोभ मैं झट से तैयार हो गया।लगभग 20 ऑप्टोमेट्रिस्टों का दल इस अभियान में शामिल हुआ।पूरे क्षेत्र के  ऑप्टोमेट्रिस्ट इसमें शामिल थे।
        पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में 'सूरी' सबडिवीजन में आता है यह स्थान।हमारी यात्रा बस द्वारा 'हावड़ा मैदान' के 'लायंस हास्पिटल' से शुरू हुई।सभी अलग अलग स्थानों से आए हुए थे लिहाजा जान पहचान बनाने में कुछ वक्त लग गया।लगभग पंद्रह बीस मिनट के बाद हम सब एक दूसरे को जानने–पहचानने लगे थे।उन दिनों बंगाल की राजनीति में उथल पुथल मचाने वाली एक घटना चल रही थी 'सिंगुर' में 'टाटा मोटर' की नैनो परियोजना को लेकर।अखबारों में तो बहुत कुछ पढ़ने को मिलता था पर उस स्थान को देखने का अवसर इस यात्रा के दौरान हो गया।हमारे गंतब्य के रास्ते में यह स्थान भी मिला।सचमें एक लम्बा चौड़ा इलाका इस काम के लिए लिया गया था,ठीक सड़क के किनारे।चलते रहे हम यँू ही नजारे देखते हुए और नए गीतों के छम्द सुनते हुए।लगभग डेढ़ घंटे की यात्रा करके हम 'बक्रेश्वर' पहुंच गए।
        बक्रेश्वर जैसा कि नाम से ही परिलक्षित होता है, इस स्थान का नाम मुनि अष्टाबक्र के नाम पर रखा गया है।यहां के मंदिर में सबसे अलग बात यह देखने में आता है कि भगवान के पहले भक्त की पूजा की जाती है यानि की 'ऋषि अष्टाबक' की पूजा भगवान शिव की पूजा के पहले की जाती है।ऐसा विश्वास है कि ऋषि अपने समय के विद्वानों में से सर्वोपरि थे।उन्होंने यहां वर्षों भगवान शिव की तपस्या की जिसके फलस्वरूप उन्हें भगवान का आशिर्वाद प्राप्त हुआ।
        नेत्र जांच कैंप यहां के एक आश्रम में लगाया गया था जहां हमारे भोजन का भी प्रबंध था।एक सुदूर ग्रामांचल जहां सुविधाओं के नाम पर शायद कुछ खास नहीं पर एक तीर्थ स्थान एवं भ्रमणस्थल है।साधारण से रहन सहन वाले सच्चे एवं सीधे सादे लोग।चिकित्सा सुविधाएं भी लगभग साधारण ही उपलब्ध।लायंस क्लब की ओर से यहां हर तिमाही इस प्रकार का कैंप लगाया जाता है जिसमें निःशुल्क नेत्र जांच, निःशुल्क चश्मा वितरण एवं आवश्यकतानुरूप शहर लेजाकर 'मोतियाबिंद' के मरीजों का निःशुल्क आपरेशन कराया जाता है।इस कैंप के दौरान यहां के युवा हमारे कार्य में सहयोग भी दे रहे थे तथा यहां के बारे में हमें बता भी रहे थे।यही युवा यात्रियों के लिए गाईड का भी काम करते हैं।
        शाम के समय हम पास के बाजार गए।दशहरा का समय था। बाजार में काफी चहल पहल थी।एक मेला सा लगा हुआ था।ज्यादातर लोग या तो ग्राम्ीण थे या आदिवासी।इनकी भाषा एवं संस्कृति में बंग्ला और भोजपुरी्रझारखंडी भाषा का मेल था।लगता था जैसे यहां आने के बाद बंगला भाषा से मिलकर इन आदिवासियों की भाषा मिली जुली भाषा हो गई हो।शायद इस भाषा को कोई नाम अबतक ना मिला हो क्योंकि पूछने पर लोग इस भाषा का नाम नहीं बता पाए।बहुत ही रंगीन माहौल था।अपने अपने कामों से फारिग होकर हर व्यक्ति  खरिददारी में लगा हुआ था।ऐसा लग रहा था कि यहां  समय एवं काल के हिसाब से बाजार शायद रात में ही लगती है।आवश्यकता एवं उपयोग की हर सामग्री उपलब्ध है।
        दूसरे दिन हम कैंप की जिम्मेदारियों से कुछ हल्का हुए।हमने यहां के दर्शनीय स्थानों पर जाने का कार्यक्रम बनाया।चिकित्सा कैंप में सहायता कर रहे स्थानीय युवा हमारे साथ हो लिए।अधिकतर ये युवा या तो गाईड का काम करते हैं या फिर मंदिर में पुरोहित का।बहुत ही खुशमिजाज एवं व्यवहार कुशल।इस स्थान के बारे में अधिकांश जानकारी उनलोगों द्वारा ही मिली।सबसे पहले हम 'अष्टाबक्र महाराज ' के मंदिर में गए।वहीं से हमारे देव दर्शन की यात्रा शुरू हुई।मंदिर के अंदर माता 'आदि शक्ति' का मंदिर है।कहते हैं कि माता सती के वियोग में जब भगवान शिव उनके शरीर को लिए हुए विक्षिप्त से होकर फिर रहे थे, भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र की सहायता से सती के शरीर के कई टुकड़े किए थे।वो अंश जहां जहां गिरे वहां एक शक्तिपीठ की स्थापना हुई।ऐसे 51 शक्तिपीठ  हैं जिनमें में से एक शक्तिपीठ यहां भी है।यहां माता के भौंहें गिरे थे।अब तो भौंहों के रूप में वहां पाषाण शिला के अंश हैं जिन्हें छूकर अनुभूति की जा सकती है।बड़ा ही पावन स्थल है।
        यहां से कुछ दूरी पर एक ताप विद्युत केंद्र है।इस स्थान की सबसे अनोखी बात यह है कि मंदिर के पास ही दस कुंड बने हुए हैं जिनमें से अधिकांश में से खौलते हुए पानी को निकलता हुआ देखा जा सकता है।इन खौलते हुए जल का तापमान कहीं 65 से लेकर 80 डिग्री सेल्सीयस तक होता है।अलग अलग नामों से अलंकृत अलग अलग कुंड ।इन कुंडों को गंगा का ही रूप माना जाता है तथा इनके नाम के साथ गंगा शब्द जुड़ा हुआ है जैसेः पापहरण गंगा, बैतरणी गंगा, खार कूंड, भैरव कुंड, अग्नि कुंड, दूध कुंड, सूर्य कुंड, श्वेत गंगा, ब्रम्ह कुंड, अम्रित कुंड।इन कुंडों से निकलने वाले जल में बहुत सारे रसायन मिले हुए हैं और कहा जाता है कि इनमें औषधीय गुण भी है।स्थानीय लोगों के अनुसार गर्म जल के इन कुंडों के रहस्य को जानने के लिए खोज एवं जांच कार्य जारी है।
        तीन दिनों का यहां का सफर हमारे लिए एक अवसर दे गया कि हम अपने देश के ऐसे सुदूर स्थानों पर स्थित लोगो एवं संस्कृति को देख और जान सकें।रेल तथा सड़क मार्ग से भी यहां पहुंचा जा सकता है।हावड़ा स्टेशन से लोकल ट्रेन बहुतायत रूप में उपलब्ध हैं।

       



बुधवार, 26 सितंबर 2012

सर्प दंश की चिकित्सा को समर्पित एक नेत्र रोग विशेषज्ञ


सर्प दंश की चिकित्सा को समर्पित एक नेत्र रोग विशेषज्ञ : डॉ दयाल बंधु मजुमदार

उन दिनो मैं कलकत्ता में था. बात 2002 की है जब एक फ्री नेत्र चिकित्सा शिविर में मैं अपने एक दोस्त के साथ शामिल होने गया था. वही मेरी मुलाकात डॉ दयाल बंधु मजुमदार से हुई थी.उन दिनो वो बैरकपुर के पास ही एक सरकारी अस्पताल में कर्यरत थे. बडे ही सरल इंसान लगे.पहली मुलाकात में ही हम दोनो की अच्छे दोस्त बन गये. समय समय पर हमरी मुलाकात होती रहती थी.मैं उनसे नेत्र रोग से आंखो की सुरकशा के उपाय पर विवेचना करता तथा कुछ गुर सीखता था.कुछ दिनो के बाद ही उनका स्थानांतरण हाबरा हॉस्पिटल में हो गया.
      हाबरा का इलाका ग्रामांचल में आता है.वहाँ विशेशज्ञ चिकित्सक को भी एक दिन इमर्जेंसी में डुटी देनी पड्ती है.यही से सर्प दंश की चिकित्सा की ओर उनका मन लग गया.उन्होने देखा की बंगाल में ग्रामंचल में सर्पदंश से होने वाली मौत की संख्या मलेरिया अथवा अन्य किसी बिमारी से होने वाली बिमारियो से कही बहुत ही ज्यादा है. हैरानी की बात उन्हे और भी ज्यादा लगी जब उन्होने पाया की एम बी बी एस में पढाये जाने वाले पाठ्यक्रमो में भारत में पाये जाने वाले सर्पो तथा उनके दंश की चिकित्सा का कोई जिक्र नही है और यही कारण है कि हमारे देश में आम तौर पर चिकित्सक सर्प दंश की चिकित्सा में तुरंत कोई सही निर्णयनही कर पाते हैं तथा मौते हो जाती हैं. उन्होने इसके लिये पह्ले खुद ही अध्ययन किया और फिर पश्चिम बंगाल में पाये जाने वाले सर्पो की प्रजातियो, उनके दंश की प्रक्रिया,पह्चान तथा किये जाने वाले चिकित्सा प्रोटोकोल का एक सीडी बनाया तथा उसे अपने खर्चे पर देश के विभिन्न चिकित्सा संस्थानो में तथा विभिन्न चिकित्सा कॉलेजो में भेजना शुरू किया. जैसा की सर्वविदित है कि कुछ नया करने की शुरूआत यदि करते हैं तो हो सकता है कि आपके बात को लोग ना भी माने या फिर आपकी हंसी उडाये,यही उनके साथ भी हुआ.पर वे निरंतर अपने इस प्रयास में लगे रहे. इसके लिये उन्होने डॉ इयन सैम्प्सन के चिकित्सा प्रोटोकोल का अनुसरण किया जो की भारत सरकार के स्नेक बाइट एड्वाईजर हैं. उनके इस प्रोटोकोल का स्वागत अह्मदबाद के चिकित्सक ने किया और उनसे इस विशय में और भी जानकारी मांगी. उनके इस प्रोटोकोल में मुझे जो सबसे हैरान कर देने वाली बात लगी वो थी करैत के दंश के बारे में थी जिसमे बताया गया था कि कई बार देखा जाता है कि रोगी में सर्प दंश के कोई लक्शन नहीं होते पर मरीज के अंदर सुस्तपन हो जाता है. ऐसा लगता है जैसे उसने नशा कर रखा हो. या कभी कभी उसके पेट में दर्द से शुरूआत  होगी, धीरे धीरे उसको आंखो की पलके बुझने लगेंगी.यही मौका है जब कि चिकित्सक अपनी सूझ बुझ से यह पता करे कि इस लक्शन के प्रकट होने से पह्ले क्या मरीज खेतो में गया था या फिर रात को जमीन पर सोने की बात पता चले. यदि ऐसा कुछ है तो हो सकता है कि उसे करैत ने काटा हो क्योकि करैत के दंश में उसको दंतो के निशान नही पडते. इस समय यदि मरीज को सही रूप में जॉच कर सही समय पर एवीएस की सही मात्रा दे दिया जाये तो मरीज की जान बचाई जा सकती है. अपने इस प्रोटोकोल का पालन करके उन्होने कई मरीजो को बचाया.
समय समय पर विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओ के साथ मिलकर आम जनता में जागरूक्ता फैलाने के लिये सेमिनार तो कभी डॉक्टर के लिये कर्यक्रम करते रहे तथा समय समय पर प्राप्त रिपोर्ट और इस नये प्रोटोकोल से होने वाली सफलताओ को लोगो को विभिन्न संचार मध्यमो जैसे कि ई मेल, वेबसाइ‌ट के माध्यम से लोगो को बताते रहे. समय समय पर गवर्नर को ज्ञापन भी देते रहे कि एमबीबीएस पाठ्यक्रम में भारत मोन होने वाले सर्प दंश एवं इसकी चिकित्सा पद्धति को शामिल किया जाय. उनका यह प्रयास रंग लाया और बंगाल में एमबीबीएस पाठ्यक्रम में इसे शामिल कर लिया गया. अभी हाल ही में उन्होने स्नेक बाईट ट्रीट्मेंट प्रोटोकोल का पोस्टर डिजाईन किया, बंगाल सरकार ने इसका अनुमोदन भी किया तथा यह आदेश पारित हुआ कि इसे राज्य के हर स्वस्थ्य केंद्र पर लगाया जाय जिससे कहीं भी चिकित्सक को सर्पदंश के मरीज को बचाने मे देर ना लगे.इस पोस्टर का हिन्दी अनुवाद भी करवाकर उन्होने एक बहुत ही अच्छा काम किया है. फेस बुक पर भी उन्होंने यह सूचना डाल रखा है कि यदि कोई चाहे तो उनसे मेल द्वरा यह पोस्टर मंगवा सकता है. इस विषय पर दो वेबसाईट है जिसपर नया नया कुछ भी होता है पोस्ट करते रह्ते हैं.वेबसाईट हैं  www.kalachkarait.webs.com  www.50000snake.webs.com .अब तो मरीजों के घर वाले भी उनसे फोन पर राय मांगते हैं. उनसे dayalbm@gmail.com पर इस विषय पर बात की जा सकती है.
      उनके कार्यों की प्रशंशा Indian express ने अपने एक विशेष कॉलम में किया है. समय समय पर बंगाल की कुछ संस्थाओं ने भी उनका सम्मान किया है.  आज मानव हित में है कि उनके बनाये इस प्रोटोकोल का अनुसरण करके भारत के हर राज्य में सर्प दंश की सही रूप मेँ चिकित्सा की जाये. इससे हर साल सर्प दंश से मरने वाले लाखों लोगों को बचाया जा सकता है.

शनिवार, 24 मार्च 2012

बचपन ऐसा ही होता है

ऐसा है मेरा देश

कितना सुन्दर है हमर देश और कितनी सुन्दर है इसकी परम्पराएं .आज भी लोग अपने पूर्वजों के बारे में कितने अछे से बताते  हैं और फिर कितने महान थे हमारे वो पूर्वज .आज की तारिख में भले ही यह बात अजीब सी लगे की कभी कोई ऐसा भी रहा होगा की की उसने पृथ्वी पर नदी को लेन की लिए परिश्रम किया हो क्योंकि विज्ञानं इस बात को नहीं मानता है . पर यिद हम देखे तो लगता है की कैसे इतनी सरलता से उन लोगो ने हमें प्रकृति से जोड़ने के लिए क्या नहीं किया और येही बात है की हमारे देश में   सब कुछ होने के बाद भी प्रकृति से स्नेह रखनेवाले कम नहीं हैं.नदी को माता मानकर उसकी पूजा करना , पठार को भगवन मानना एक अंधविश्वास नहीं अपितु प्रकृति से लगाव बढ़ाने का जरिया है.इसी परिपाटी का उदहारण है और जोड़ है साधू संतो का होना, उनके द्वारा दिखाए जाने वाले रस्ते सब कुछ उसी का एक स्वरुप है जिसमे हम संरक्षरण की कला जान कर प्रकृति को बचने का उपक्रम करते हैं.
 इस देश में ऐसे भी माँ बाप हैं जो अपने कलेजे पर पत्थर रखकर अपने बछो को साधू बन्ने के लिय जग कल्याण हेतु भेज देते हैं.
 

ब्लॉगिंग की दुनिया में मेरा पहला कदम