हवाएं

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

ओ माई गॉड

       हमारे एक परिचित शिक्षक हैं।बहुत ही ज्ञानी एवं सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी।सही मायने में ज्ञानी इसलिए भी कि अहंकार तो जैसे रत्तीभर भी ना हो।एक दिन उनसे मिलने गया। घर में उनके परिवार के अन्य सदस्यों के अलावा एक बयोवृद्ध माताजी भी हैं जिनका वो तन मन से ख्याल रखते हैं।पूर्ण रूपेण नास्तिक तो नही ंहैं पर बेकार के आडंबरों से बिल्कुल दूर रहना चाहते हैं. ।वहीं माताजी उनके एकदम उलट  एकदम धर्मभीरू एवं भक्तिभावना से ओत प्रोत।मां  बेटे में मिठी नोंकझोंक होने लगी ।साहब माताजी को तीर्थयात्रा पर लेकर गए थे।कुछ तो उम्र का प्रभाव तो कुछ यात्रा की कठिनाइयां Ê माताजी रास्ते में ही बीमार हो गईं।तीर्थ तक पहुंच तो गईं पर बीमारी के कारण भगवत दर्शन का आनंद नहीं ले पााईं।साहब ने कहा कि जब पूरे राह आंखें बंद ही रहीं तो ताीर्थ जाना तोा व्यर्थ ही गया । आजकल जब इंटरनेट पर जब सबकुछ उपलब्ध है तो वहां जाकर धक्का खाकर यह सब सहने की क्या जरूरत है।उन दिनों जब संचार माध्यम एवं यात्रा के साधन बहुत कम थे तब चार धाम की यात्रा के पीछे  उद्देश्य था कि लोग इसी बहाने से अपने क्षेत्र से बाहर निकलें और अन्य स्थानों पर धाम  दर्शन के नाम पर उन स्थानों की संस्कृति का आनन्द लेंÊएक दूसरे की संस्कृति को जानें।आज के युग में सिर्फ दर्शन के लिए जाने का कोई औचित्य नहीं और वो भी तब जबकि आपका शरीर इस बात के लिए तैयार ना हो।मााताजी का तर्क था कि इसी बहाने तुमने मां की सेवा का लाभ ले लिया।किसी भी तरह से माताजी अपने विचारधरा को बदलने की बात सोच ही नहीं सकती हैं।होना भी नहीं चाहिए। आखिर हमारा देशा धर्म के लिए ही तो सदियों से जाना जाता है।

        भारत के हर प्रान्त में विभिन्न रूप में भगवान की अर्चना की जाती है ।बंगाल में दुर्गा पूजा,महाराष्ट्र में गणपति की तो ऐसे ही हर प्रान्तवासी अपने अपने हिसाब से त्यौहारों को मनाता है। त्यौहारों का मौसम आते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है।हर तरफ एक अनोखा उल्लास और खुशहाली का माहौल हो जाता है।लोग पहले से ही इसके लिए तैयारियों में जुट जाते हैं।कहीं कपड़ो की खरीददारी होने लगती है तो कहीं गहनों की।सारा बाजार सजीव हो उठता है।लगता है कि अबकी कमाई हो गई तो फिर कई दिनों तक काम करने की जरूरत महसूस नहीं होगी।आलम ऐसा होता है कि हमारे देश के इन त्यौहारों की धूम विदेशों तक में फैल जाती है।आयोजनों के लिए एक से एक संस्थाएं आगे आती हैं।बढ़–चढ़कर चंदा उगाही की जाती है।यह सिर्फ इसलिए कि खूब धूमधाम से पूजा मंडप को सजाया जा सके और उसमें अलंंकृत भगवान की प्रतिमा को विराजमन किया जा सके।देखने वाला जो भी आए, मंत्रमुग्ध हो जाए और फर इस छटा को अपने में समेटे यादों तक में ले कर जाए।धूमधाम से सारा आयोजन संपन्न हो जाता है और फिर निश्चित दिन मूर्ति विसर्जन का समय आता है।यही एक परंपरा है जे मेरे मन पर इस प्रकार के आयोजनों के प्रति एक नाकारात्मक छाप छोड़ती है ।ऐसा नहीं की मैं एकदम नास्तिक प्रकृति का इंसान हूँ या फिर नाकारत्मक सोच वाला पर बाद की दशा देखकर मै कुछ हताश सा अवश्य हो जाता हूँ।विसर्जन के दिन इन मूर्तियों को या तो जल में डुबो दिया जाता है या फिर जहॉ जल की कमी है वहॉं सड़कों के किनारे छोड़ दिया जाता है धूप,बारिष,मौसम के थपेड़ों से टकराकर कालकलवित होने के लिए। चलिए मान लेते हैं कि इस प्रक्रिया द्वारा यह साबित किया जाता है कि जिसने भी जन्म लिया है उसको एक न एक दिन पंच तत्व में विलीन होना ही पड़ता है और फिर इन मूर्तियों को पंचतत्व में विलीन करके हम इस बात का अहसास भी कर लेते हैं।पर क्या यह सर्वथा उचित लगता है कि हम जिसकी धूमधाम से पूजा–अर्चना करते हैं उसे सड़क के किनारे यूँ ही अकेला छोड़ देते हैं प्रकृति के भरोसे कालकलवित होने के लिए ? क्या यह उनका सरासर अपमान नहीं है? क्या यह तरीका सर्वथा उचित है?

         शायद यही एक वजह है कि 'राजा राम मोहन राय' जैसे लोगों ने मूर्तिपूजा का  विरोध किया था।मूर्तिपूजा हो सकता है कि ध्यान लगाकर साधना करने का एक साधन मात्र हो पर इसका इस प्रकार से समापन तो कहीं भी किसी भी रूप में उचित नहीं लगता है।

        कल की ही बात है, छोटे भाई कहीं से एक फिल्म “ओ माई गॉड” की सीडी लाए।हम सबने एक साथ बैठकर इसका आनंद लिया।सचमुच में इसकी 'थीम' बहुत ही अच्छी है।वैसा ही जैसा कि मैं सोचा करता था।कृपया अन्यथा ना लें ना ही तो मेरे मन में ऐसी कोई भावना है कि मैं भगवान को न मानने वाला हूं या फिर किसी घटना के लिए संपूर्ण रूप से भगवान को दोषी मानकर उनके खिलाफ चढ़ दौड़ू  जैसा कि फिल्म के कलाकार 'परेश रावलजी' ने किया। जब हमपर कोई आफत या फिर इम्तहान का समय होता है, हम पहुॅच जाते हैं रिश्वत की अर्जी लेकर भगवान के द्वारे पर और फिर मोलभाव की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है।इसका कुछ ज्यादा ही भुक्तभोगी रहा हूँ मैं।

        'कलकत्ता प्रवासी' होने के कारण 'ंमां काली' में हमारी काफी आस्था रही है।हम ही क्यों कलकत्ता के बाहर रहने वाले धार्मिक प्रवृति का यदि कोई भी होगा और उसे कलकत्ता जाने का मौका दिया जाय और पूछा जाय कि वहां जाकर क्या देखना चाहेगा तो सबसे पहले उसके जुबान पर 'कलकत्ते की मां काली' का नाम ही आएगा।सचमुच बड़ी कृपा बरसाने वाली हैं मातृरूप देवियां।मैं भी दर्शन की अभिलाषा लिए जा पहुॅचा 'कालीघाट'।'कालीघाट'  मेट्रो रेल का एक स्टेशन है जहॉं से मंदिर बिल्कुल पास में ही है।स्टेशन से जैसे ही बाहर आया  मस्तक पर तिलक लगाए हुए धोतीधारी एक सज्जन मिल गए कहा. 'सुलभ ढंग से मां के दर्शन करवा दुंगा'। म्ंौने पूछा आप कौन हैं तो जवाब मिला कि हम 'पंडा' हैं।ऐसे ही वेशभूषा में कई और लोग मिल गए जो कि यात्रियों को 'सुविधा' प्रदान करते हैं 'ंमां काली ' के दर्शन करवाने में। थोड़ी सी मोलभाव के बाद हमारी डील पक्की हो गई और हम दर्शन के लिए निकल पडे.।यहीं से शूरूआत हुई आस्था के नाम पर मोलभाव की।कुछ नीचेÊकुछ ऊपर ले दे कर मंदिर के प्रवेशद्वार पर पहुचे।पूरी आस्था के साथ मन प्रसन्न हो रहा था कि माताजी के चरणों में वंदना करने की बरसों की मुराद आज पूरी होने जा रही है।पर मंदिर के अम्दर तो और भी गोरखधंधा बना पड़ा था। रस्सी के सहारे माता की प्रतिमा के पास लटकने वाले पंडे बार बार उकसा रहे थे कि माता के भोग के लिए कुछ दोÊमाता की आरती के लिए कुछ दोÊअपने कल्याण के लिए कुछ दो और जो कुछ भी था उसकी संख्या पंद्रह सौ रूपए से ही शुरू हो रही थी।भीड़ के धक्के से मै और मेरे परिवार का हर सदस्य जैसे कुचल जा रहा था।पर ये मुए ऐसे थे जो कि बस निचोड़ने के प्रयास में लगे हुए थे।ऐसे माहौल में जहां संत्री से लेकर पुजारी सभी लुटेरे के समान आप पर हावी हो रहे हों तब मन की श्रद्धा गायब होकर क्रोध का रूप लेने लगती है और लगता है कि हम कहां आ गए जानबूझकर खुद को लुटवाने।

        ऐसा नहीं की यह बात सिर्फ कलकत्ते तक ही सीमित हो।यह सब भारत के लगभग हर बडे मंदिरों मै है जहॉ भक्त को भगवान से ज्यादा कुछ मिलने की आशा होती है अन्य शब्दों में जहां से अधिक एवं तुरंत कृपा मिलने की बात सुनी जाती है।

        अब भक्त  को भगवान से मिलकर उनका सानिध्य एवं आशिर्वाद लेना है पर इस प्रकार की क्रिपा पााने की राह हमें और कुछ दे या ना दे पर एक सीख तो दे ही देता है और वह यह है कि हम अपनी जेब को कटने से बचाने का हर प्रयास करने लग जाते हैं जो कि आस्था के सामने एक असफल प्रयास होता है एवं देव भक्ति के कारण क्रोध प्रकट ना करके उसे पीने एवं सहने की आदत सीख लेते हैं

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