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शनिवार, 9 सितंबर 2023

वे खलनायक नहीं थे - डॉ. गुणशेखर




आज राजेन्द्र जी पर जब लिखने बैठी हूँ, ऐन सुबह का वही समय है जब वे अपने पढ़ने के टेबल पर नियमित रूप से विद्यमान होते थे- अपनी शारीरिक-मानसिक विवशताओं के बावजूद, उस उम्र में भी। उनका वह कमरा, उनकी वह मेज, कुर्सी, किताबें और उनका वह दफ्तर सब उन्हें मिस कर रहे होंगे, ठीक मेरी ही तरह...


वर्षों की यह समयावधि यदि बहुत बड़ी नहीं तो बहुत छोटी भी नहीं है। मैं कलम लिए चुपचाप बैठी हूँ, लिखूँ तो क्या लिखूँ और नहीं लिखूँ तो क्या। शब्द जैसे चुक-से गए हैं। पर कहना तो है ही चाहे इस चुकी हुई भाषा में ही सही... 


यादें बहुत सारी हैं। हां,यादें हीं...हालांकि उन्हें यादें स्मृतियां कह कर संबोधित करते हुये अभी भी कलम थरथराती है, जुबां की तरह... मैं तय करती हूँ उनके लेखक और संपादक रूप पर नहीं लिखूँगी, वह सब तो जगविदित है। अभी बस वो बातें जो मुझसे या हमसे या हम सबसे जुड़ी हैं..


वह 1998 रहा होगा। 23 नव. को पिता की बरसी पर एक कविता लिखी थी – ‘क्षण–क्षण कर के न जाने बीत चुके है / कितने अंतहीन बरस / इतने बरस कम तो नहीं होते पिता / राम का वनवास भी खत्म हो गया था सिर्फ चौदह वर्षो मे /मेरी तपस्या का कोई अंत नहीं...क्षण भर को ही सही / मेरे सपनों मे आ जाओ पिता / मैं तुम्हारे साथ हँसना-हंसाना चाहती हूँ / खीजना-खिजाना चाहती हूँ/ जिदें करना और उन्हें मनवाना चाहती हूँ / चाहती हूँ तुम्हारे साथ, तुम्हारे सहारे जीना /अपना निलंबित बचपन।'...पिता नहीं आ सकत थे, वे नहीं आए थे। सपनों मे भी नहीं… पर यह दुआ जैसे कुबूल हो गई थी। उन जैसी ही एक छवि कुछ दिनों बाद मेरे दैनंदिन मे शामिल हो गई थी। हाँ, पिता की कमी, घर से दूरी सबका खामियाजा मैंने राजेन्द्र जी से ही चाहा। अपनी पहली मुलाकात से ही।  पिता जैसी ठहाकेदार हंसी, पाईप, किताबें, उनमें मुझे पापा का चेहरा दिखाई पड़ता। अगर मायके का सम्बन्ध स्त्रियों के अधिकार भाव, बचपने और खुल कर जीने से होता है तो मैं कह सकती हूं ‘हंस’ मेरा दूसरा मायका था।


मैंने राजेन्द्रजी से एक बार कहा था कि आपके कथित स्त्री विमर्श और आपके निजी जीवन के बीच एक लंबी खाई दिखती है। जिन अंतर्विरोधों का जिक्र आप दूसरे लेखकों के बारे में करते रहे हैं क्या आप खुद भी उनके शिकार नहीं?' उन्होंने हमेशा की तरह हंसते हुये ही जवाब दिया था- “स्त्री विमर्श को लेकर मैं जो कुछ भी सोचता हूँ, व्यवहार में भी ठीक वही उतार पाऊँ ऐसा हर समय संभव नहीं हो पाता। हां, मैं चाहता हूँ कि वैसा हो। मैं अपने इस अंतर्विरोध से संतुष्ट हूँ ऐसा नहीं है... मैं बार-बार खुद को संशोधित-परिवर्धित करने की मानसिक प्रक्रिया से गुजरता हूं। जिसे तुम सिर्फ स्त्री विमर्श के संदर्भ में देख रही हो, वह मेरे लिए अपने आप को पुन: संयोजित करने का प्रशिक्षण भी है। मैं जो हूँ और जो हो सकता हूँ या होना चाहता हूँ उस बीच की खाई को हमेशा कम करने की कोशिश करता रहा हूँ ।“ मैंने उनके व्यवहार में भी यही देखा था।


यह मेरी ‘उलटबांसी’ कहानी से जुड़ा प्रकरण है। पहली दृष्टि में तो राजेन्द्र जी ने इसे बकवास करार दिया... 

'बूढ़ी मां अचानक शादी कैसे कर सकती है, कौन मिल जायेगा उसे?'

'वह बूढ़ी नहीं है, प्रौढ़ा है. और गर पुरुषों को मिल सकती है कोई, किसी भी उम्र में, तो फिर औरत को क्यों नहीं?'

'होने को तो कुछ भी हो सकता है... वह कौन है.. कहां मिला, कैसे मिला कुछ भी नहीं...। '

'मुझे उसकी जरूरत नहीं लगती.. कहानी मां और बेटी के बदलते संबंधों की है...किसी तीसरे पक्ष की नहीं। सो उसके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अपूर्वा के भीतर की स्त्री अपनी मां के निर्णय में उसके साथ है, लेकिन उसके भीतर की बेटी अपने पिता की जगह पर कैसे किसी और को देख कर सहज रह सकती है? इसलिये बेहतर है वह अपनी मां के नये पति के बारे में ज्यादा दिलचस्पी न दिखाये।


राजेन्द्र जी ने दो–चार  दिनों बाद मुझसे पूछा था-'तेरी उस कहानी का क्या हुआ?'

'टाईप हो रही है।'

'फिर? '

'फिर... दूँगी कहीं ... '

'पहले मुझे पढ़ने के लिए देना।'

'लेकिन आप तो पढ़ चुके है...'

'मैं  फिर से पढ़ूँगा, कोई दिक्कत? '

'नहीं...'


और इस बार उन्हें यह कहानी पसंद आ गई थी। उनके भीतर बसे आदिम पुरुष के लिए भले ही एक माँ का उस उम्र  में लिया गया पुनर्विवाह का निर्णय अग्राह्य रहा हो पर उन्होंने अपने भीतर के संस्कारों और अंतर्विरोधों से लड़ते हुए एक स्त्री के पक्ष, तर्क और अनुभूतियों को समझने की चेष्टा की थी।


मुझे अब लगता है कि `होना/सोना...’ को  भी उस भाषा-शैली में लिखने के लिए सबसे पहली लड़ाई उन्हें खुद से ही लड़नी पड़ी होगी। वह लेख एक तरह से खुद को खोजने, चीन्हने की प्रक्रिया का ही एक अहम हिस्सा था। अपने भीतर के अंतर्विरोधों, आदिम पुरुष की आंतरिक बनावट और उसकी निर्मम मर्दाना भाषा-सोच की शिनाख्त। तब इस लेख की भाषा-शैली और कहन के लहजे पर भी बहुत सवाल उठे थे। पर शायद ही वह कोई स्त्री होगी जो कह सके कि उसने इस भाषा, ऐसी दृष्टि को कभी नहीं सुना-सहा; उससे वाकिफ नहीं हुई। भीतर और बाहर के द्वंद्व से लड़-जूझकर आग को आग और पानी को पानी कहने का उनका यही अंदाज़ उन्हें भीड़ में अलग करता था। 


कुछ भी नया करने, सीखने-समझने  के लिए  वो हमेशा तत्पर होते थे। सिखाने के लिए भी।  प्रूफ देखने में मुझे हमेशा से ऊब होती है, तब तो और भी होती थी। वही कहानी में डूब जाने, उसके साथ बह ल्रेने की आदत... मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि किसी रचना से ऐसे तटस्थ होकर कैसे गुजरा जा सकता है। मैं  उनसे भी कहती मुझसे नहीं होता यह सब। बहुत बोरिंग लगता है। तो कहते - 'कल को जब तेरी खुद की किताबें आएंगी फिर...शायद वो हमें आगामी दिनों के लिए तैयार कर रहे थे। संघर्ष के उन दिनों में किसी भी तरह हमें अपने पैरों पर खड़े  देखना चाहते थे और इसके लिए वो हरसंभव यत्त्न भी करते थे। 


राजेंद्र जी लोगों पर भरोसा बहुत जल्दी कर लेते थे। बच्चों की सी मासूमियत और सरल निश्छलता  के साथ...यहाँ उनका तर्कबुद्धि, विवेचनशक्ति किसी से कोई मतलब नहीं था। वे कल  के आए किसी पर उतना ही भरोसा  कर सकते थे जितना कि बरसों के किसी पुराने मित्र पर,  इस कारण उन्हे झेलना भी बहुत पड़ा। जहां उनके इस लगाव के कारण उनके अंध समर्थकों की कमी नहीं थी, वहीं ऐसे लोगों कि भी नहीं जो तनिक से मतभेद और अपने छोटे–छोटे स्वार्थों की पूर्ति होते न देख उनसे दूर जा खड़े होते थे। कहने की बात नहीं कि उनके इस हद तक टूटने और कुछ हदतक उनकी मृत्यु के कारण भी ऐसे ही संबंध रहे। उन्हें यह एहसास था कि वो अकेले पड़ते जा रहे हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर  उनके लिए कही जानेवाली अभद्र और अशालीन बातें... उनके आसपास कभी भी होने वाली हर महिला से उनके संबंध जोड़कर देखे  जा रहे थे, यह भी कहा जा रहा था कि उनके आसपास की औरतें सुरक्षित नहीं। मुझे इस बात का अफसोस है कि मैं उस वक़्त  चुप रही, मैंने इसका प्रतिवाद नहीं किया... मुझे यह कहना चाहिए था कि हम उनके साथ बहुत महफूज थे, उतने जितने कि यह सबकुछ लिखने-कहने वाले लोगो के साथ नहीं हो सकते थे। यह सिर्फ मेरा अनुभव  नहीं इसकी तसदीक अर्चना जी, वीणा जी से लेकर बहुत से लोगो से हो सकती थी... 


इसी संबंध में मुझे एक वाकया याद आ रहा है- हंस के 2003-04 के किसी अंक में कृष्णा अग्निहोत्री की एक आत्मकथात्मक कहानी आई थी- ‘ये क्या जगह है दोस्तों’ उस कहानी में उन्होने सिर्फ पत्रों के द्वारा ही किसी व्यक्ति से अपने आत्मिक लगाव और फिर उसके रूक्ष व्यवहार से अपने आहत होने की मार्मिक वेदना को बड़ी तरलता और सहजता से लिखा था। पत्रिका के उसी अंक में मेरी कहानी ‘भय’ भी आई थी। मुझे उनकी कहानी पढ़ते ही उस व्यक्ति की शिनाख्त में तनिक भी देर नहीं हुई, कारण कि  ठीक-ठीक वही बातें और उसी तरह के पत्र एक जनाब मुझे भी लिखते रहे थे। मुझे उनकी मंशा साफ समझ में आ गयी थी। मैंने एक दिन राजेंद्र जी से कहा कि जब मुझ जैसी बेवकूफ लड़की को भी उन सज्जन की हरकतें समझ मे आ रही थीं तो कृष्णा जी तो अनुभवी ठहरीं, उन्हे क्यो नहीं समझ में आया कि ... राजेंद्र जी ने कहा था कि तुम इस बात को नहीं समझ पाओगी, तुम्हारे साथ परिवार है। पर जब आदमी की उम्र होने लगती है, जब वह अकेला हो चलता है तब उम्मीद और प्यार के हरेक झूठे-सच्चे तन्तु को भी सम्भाल कर रखना चाहता है। उसी में उलझकर थोड़ा और जी लेना भी...


विद्यानिधि, मैं, संगीता, बलवंत और बाद में गीताश्री ने भी उनके लेखों के संकलन का काम किया। मैं, संगीता, मुक्ता हम सब अपने पीछे अपना बहुत कुछ छोड़ आए थे और दिल्ली में हमारे लिए रिश्ते और घर का मतलब सिर्फ राजेन्द्रजी ही थे।  वे हमारे लिए कल्पवृक्ष की तरह थे, हम सब ने उनमें जो देखा, जो खोजा वे हमारे लिए वही थे। वे अपने लिये तो जैसे थे ही नहीं। 


राजेश रंजन की जनसत्ता की नौकरी छूटने के बाद संगीता के लिए अपने पास कुछ काम देखना हो या ऐसी कोई और बात, वे ये सब ऐसे करते थे जैसे हमें नहीं उन्हें हमारी जरूरत हो। मैंने मुक्ता और मनोज को अपनी छोटी-छोटी शिकायतें उनसे करते देखा है- मसलन मुझे यह सिगरेट नहीं पीने देती। सारे खुले पैसे जेब से निकाल लेती है... आदि-आदि।  मैं भी अपनी सारी शिकायतें लेकर वहीं पहुँचती थी। अपनी आर्चीज़ की नौकरी के वक़्त किसी न किसी बहाने आधे दिन की छुट्टी लेकर शनिवार को भागकर नारायणा से दरियागंज, 2/36 अंसारी रोड ; हंस के दफ्तर उनसे मिलने के लिए पहुँचना... यूं भी हमारी  गृहस्थी के वे नए-नए दिन थे और हमें  भी किसी फ्रैड, फिलॉस्फर, गाइड की जरूरत थी और कहने कि बात नहीं कि...


उन दिनों उनके लंचबॉक्स मे आलू की एक सब्जी जरूर होती थी  पर इसके साथ-साथ जो दूसरी बात जरूर होती वह यह कि हंस के दफ्तर में उन दिनों हर आने-जानेवाले से मेरे आलू प्रेम की चर्चा ।अर्चना जी ने उनदिनों अपने लिखे एक लेख `तोते की जान ` मे इसका जिक्र भी किया है। हमसब  को यह गुमान था कि राजेंद्र जी हमसे बहुत स्नेह करते हैं और हमें ही नहीं उनसे मिलने वाले हरेक इंसान को यह गुमान होता होगा। उनदिनों मैं उनसे कहा करती थी कि `लड़की जिसने इन्जन  ड्राइवर से प्यार किया `[ई. हरिहरन की एक कहानी जिसका हिन्दी अनुवाद उनदिनों हंस मे आया था] की लड़की मैं हूँ और पादरी वो।  सहजीवन के उन्हीं दिनों में जब किन्ही कारणवश मैं और राकेश कुछ दिन अलग रहने का निर्णय लेना चाहते थे और मेरे फ्रीलान्सर होने की वजह से मुझे वर्किंग वुमेन हॉस्टल मिलने में भी परेशानी थी और उसका खर्च वहन कर पाने में भी , तब राजेंद्र जी ने यह सुझाव दिया था कि मैं मन्नू जी के साथ रह जाऊ और वो जो भी डिक्टेट करें मैं लिख दिया करूँ। मन्नू जी की आँखों मे उन दिनों परेशानी थी, उनकी  आत्मकथा का एक खंड उन्हीं दिनों छपा था और काफी चर्चित भी हुआ था। हालांकि यह संभव नहीं हो सका था पर मन्नू जी से मिलने की मेरी हार्दिक ईच्छा इसी कारण पूरी हो सकी थी।  राजेंद्र जी सबके लिया कितना सोचते थे यह भी उस दिन समझ सकी थीं ।


पाखी के विशेषांक मे उनपर लिखे गए लेख को लेकर मैं सहमी हुई थी, पता नहीं वो इसे किस तरह लें। कारण कि अपनी अपनी छोटी–छोटी शिकायतें, अपने छोटे–मोटे दुख; जो कि कभी न कभी हर संबंध में आते ही आते हैं और जिनका सम्बंध कहीं न कहीं हमारी असीम ईच्छाओं से होता है, मैंने उसमें वह सब दर्ज कर डाला था। पर उसके बाद जब मैं अपने पहले उपन्यास के लोकार्पण के लिए दिल्ली आई और  उनसे मिली तो वे उसी पुराने उत्साह और गर्मजोशी के साथ मिले। हमें हमेशा की तरह घर पर भी बुलाया। खाना बनवाकर रखा- गरम-गरम आलू की सब्जी और पूरिया। मुझे हाल में छपी कहानी ‘बावड़ी’ के लिए चेक दिया और सोनसी को चॉकलेट और पेन –'इससे नानाजी को चिट्ठी लिखना।' उन्होंने तीन साल की‌ उस बच्ची की कवितायें भी सुनी और उसी प्यार से तंबाकू न लेने की उसकी हिदायतें भी। तब यह कहाँ पता था की यह हमारी आखिरी मुलाक़ात है ...    

                              

 इन दिनों से पहले  ककि वह दौर जो बहुत सारी अनिश्चितताओं और मुश्किलों से भरा होता था. जब निश्चित आय का स्रोत नहीं था। हां लिखने और छपने के लिये जगहें थीं और काम भी इतना कि सारे असाइन्मेंट पूरे कर लिये जायें तो रहने-खाने की दिक्कत न हो। पर फ्री-लांसिग के पारिश्रमिक के चेकों के आने का कोई नियत समय तो होता नहीं, जल्दी भी आये तो तीन महीने तो लग ही जाते थे।  उस पूरे दौर में राजेन्द्र जी का साथ मेरे लिये इन अर्थों में भी एक बड़ा संबल था कि उस ढाई-तीन वर्षों के कठिन काल-खंड में उन्होंने मुझे किसी न किसी ऐसे प्रोजेक्ट में लगातार शामिल रखा जिससे थोड़ी बहुत ही सही मुझे नियमित आर्थिक आमदनी भी होती रही। हिन्दी अकादमी के  उस न आ सकनेवाले 'बीसबीं शताब्दी की कहानियां' के अलावे राजेन्द्र जी के साक्षात्कार, पत्रों और लेखों की किताबों का संयोजन-संपादन उसी समयावधि की उपलब्धियां हैं।

               

सिर्फ मैं ही नहीं, मेरी जानकारी में ऐसी मदद उन्होंने कई लोगों की की थी। वह मटियानी जी की की अन्तिम कहानी थी जो हंस में छपी थी। नाम शायद 'उपरान्त' है। उसके छपने की भी एक अलग कहानी है। मटियानी जी काफी दिनों से अस्वस्थ थे, यह बात पूरी हिन्दी-पट्टी को पता था। न उनकी दिमागी हालत ठीक थी न आर्थिक स्थिति। सिर में अनवरत दर्द रहने की शिकायत उन्हें उन दिनों लगातार रहती थी। ऐसे में कही जाते वक़्त राजेंद्र जी रास्ता बदलकर उनसे मिलने चले गए थे और उन्हें यह कहकर कुछ रुपये, अगर मुझे ठीक याद है तो शायद 10 हजार; थमा आये थे कि यह तुम्हारी कहानी का अग्रिम पारिश्रमिक है। तुम मुझे जल्दी से अपनी कहानी लिखकर भेजो...  न लिखने के अपने तमाम बहाने रहने दो। मटियानी जी ने भी अपनी उसी मानसिक स्थिति में जल्दी से जल्दी कहानी पूरी करके भेजी थी। यह सारा वाकया मुझे कहानी के साथ आई मटियानी जी की चिट्ठी से ही मालूम हुआ था, जिसमें उन्होने राजेंद्र जी के इस आकस्मिक  आगमन और अचंभित कर देने वाले स्वभाव की चर्चा काफी गदगद होकर की गयी थी। चूकि उन दिनों चिट्ठियों के संग्रह पर काम करने के कारण चिठ्ठिया मैं ही  संभाल रही थी इसलिए यह वाकया ज्यों-का-त्यों याद है अभी भी...


मेरी शुरुआती कहानियां वे यह कहकर लौटाते रहे कि `इसमें तू कहाँ है’।  उनके संकेत शायद मैं नहीं समझ पा रही थी। तब बाद में उन्होने स्पष्ट शब्दों में कहा कि `तू अपने अनुभव लिखने से क्यों हिचक रही है? परिवार, समाज और आसपास की बातें तथा खुद अपने भीतर के द्वंद्व जैसे विषयों पर हमारे यहां कहानियाँ बहुत कम है।‘  उनका सूक्ष्म इशारा मेरे सहजीवन की तरफ था। यह उनके कहे का ही नतीजा था कि मैं अपने भीतर के भय से जूझकर `मेरी  नाप के कपड़े’, `भय’ और `आशियाना’ लिख सकी। मैं लड़ सकी इस भय से कि मैं पहचान ली जाऊँगी। यदि उन्होने वो कहानियाँ लौटाई न होती तो पता नहीं कब मैं अपने इस भय से मुक्ति पाती। 


चार वर्षों के सहजीवन के बाद जब मैंने और राकेश ने शादी का निर्णय लिया तो राजेन्द्रजी ने मुझे यह कहा था कि- `अच्छी तरह सोच विचार कर निर्णय लेना। इसलिए तो बिलकुल भी नहीं कि चार साल तक साथ रहने के बाद अलग हुई तो लोग क्या कहेंगे?‘ शादी के ठीक दो दिन पहले उनकी यह बात जाहिर है मुझे तब उतनी अच्छी नहीं लगी थी पर अब तटस्थ भाव से सोचूँ तो उसके निहितार्थ समझ में आते है और हमारे लिए उनकी चिंता भी...


अंतिम दिनों में कभी राकेश कि छुट्टी पर बात जा अटकती, कभी सोनसी के स्कूल और क्लास पर...वे फिर भी चाहे जन्मदिन हो या हंस की गोष्ठी  यही कहते रहे - 'तू आ जा, उस साले को छुट्टी नहीं है तो बेटी को लेकर आजा।' आज दुख है तो सिर्फ यह है कि वे बार-बार कहते रहे पर मैं उनसे मिलने नहीं जा सकी। पूरे डेढ़ साल। इतने दिन तो कभी नहीं बीते थे उनसे मिले बगैर। 


और फिर एक दिन ...


 दिल्ली जाने और उनसे मिलने की वह बेचैनी भी अब कभी नहीं होगी। उनके जाने के साथ जैसे भीतर बहुत कुछ मरा है... टूटा है किरिच-किरिच। मैं पोली हो गई हूँ जैसे ....

मंगलवार, 1 अगस्त 2023

IBPS SPECIALIST OFFICER RECRUITMENT EXAM

बैंकों में राजभाषा अधिकारी की सीधी भर्ती

IBPS PO & SO 2023 Recruitment
 
Registration Starts 1st Aug.

Reg. Date » From 1st till 21st August 2023

Exam Dates

IBPS PO :  Prelims: September/ October 2023
Mains: November 2023 
Interview: January/February 2024

IBPS SO : Prelims: December 2023

Mains: January 2024

Interview: February/March 2024

Detailed advertisement:

Application Link:


मंगलवार, 18 जुलाई 2023

Certificate course in Translation केवल 3 महीने का कर SSC JHT के लिए elig...

Admission link


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*अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर*( सावित्री बाई फुले पुणे विश्वविद्यालय से संबद्ध )*के हिंदी विभाग* *की* *ओर से अनुवाद का* *सर्टिफिकेट कोर्स* *ऑनलाइन* *शुरू किया जा रहा है।

_आज दुनिया के सभी देश एक_- दूसरे से जुड़े हैं, जिसमें भाषा  महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । इस अनुवाद के कोर्स से आप अनुवादक  तथा हिंदी अधिकारी के रूप में काम करने के लिए अपने- आप को तैयार कर सकते  हैं।

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Today's multicultural and multilingual society needs effective and efficient communication between languages and cultures. Practical application of translation will help students to apply as Official language officers in government offices like Bank , Railways, Defence , BSNL, etc.

 *_Name of the course_ :* *Certificate course in* *Translation studies. Hindi to English and vice versa* 
 *Organising Department:* *Department of Hindi* 
 *Name of the coordinator* : *Dr* . *Poornima B.Behere* 
 *Head of the department* : *Prof. Dr.* *Richa Sharma* 
 *Eligibility for admission* : *10+2 ( any* *stream)* 
 *Duration of course* :  *3* *months* 
 *Fees  : ₹ 1500
( U.G  Students can earn 2 credit points by joining this course)

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*Mode of class is ONLINE*

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 _For further details_ _contact_
 Coordinator: 9325331641
HOD : +91 93702 88414

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*Last day to fill the form  is 20 July 2023*

 *Classes will be on Saturday  and Sunday from 6 pm to 8 pm


रविवार, 8 फ़रवरी 2015

गली कूचा -2

खबरों में देखा कि हमारे मित्र के मुहल्ले में अशांति का माहौल है । पिछले कुछ दिनों से रैपिड एक्शन टीम मुहल्ले में डेरा डाले हुए पड़ी है । लोगों में भय एवं अनिश्चितता का माहौल है । कुछ लोगो ने तो अपने बाल बच्चों को कहीं सुरक्षित स्थान पर भेज दिया । क्या पता कल क्या हो जाए । औद्योगिक इलाका , मजदूरो की श्रेणी अधिक है जिन्हे  रोज कमाना और रोज खाना है । कल कारखाने भी बंद हैं । जाएँ तो जाएँ कहाँ वाली स्थिति पैदा हुई है ।
घटना की तह मे जाकर तहक़ीक़ात किया तो पता लगा कि मुद्दा कुछ खास नहीं है । एक समुदाय की धार्मिक शोभायात्रा चल रही थी । इसमें कुछ शरारती तत्वों ने विघ्न पैदा कर दिया । यात्रा करने वालों के साथ मार पीट और अभद्रता की गई । ऐसा नहीं कि उस यात्रा में शामिल लोगों ने इस अभद्रता को सहन किया हो । उन्होने भी सामर्थ्य भर प्रतिकार तो किया ही । बस विरोध का जामा चढ़ गया और हल्का फुल्का झगड़ा कौमी रंग में ढल गया । तलवारें खींच गई और लड़ाइयाँ होने लगी । आनन फानन में प्रशासन ने कर्फ़्यू लगा दिया । कुछ भय और आतंक से तो कुछ पुलिस द्वारा अरेस्ट होने का डर , सबको शांत किए था । मनौवल का दौर चला । जिसकी कोई जरूरत भी नहीं थी वह भी दल का मुखिया बन समझौते के उद्देश्य से बैठकें करने लगा । शांति बहाल कने के लिए कोई भी तैयार नहीं था । किसी ने भी स्कूल जाने वाले उन बच्चों के बारे में नहीं सोचा जिनकी परीक्षा चल रही थी जो इस हंगामे को भेंट चढ़ गयी , अब बेचारों को एक साल और परिश्रम उसी क्लास  में करना  पड़ेगा । उन मजदूरों के बारे में किसी ने नहीं सोचा जो बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी की किसी तरह से जुगाड़ कर पाता था , आज सात दिन से घर में भूखा बैठा है । किसी ने उन बीमार जनों की सुध नहीं ली जो इस घटना के प्रारम्भ में चोट खाये हुए अस्पताल मे पड़े हुए थे । सब अपने अपने आन के लिए लगे हुए थे विरोध  करने में । लगभग सौ से अधिक जवान शांति भंग करने के आरोप में कहें या फिर शांति बनाए रखने के लिए पुलिस के हत्थे चढ़ कर जेल के सलाखों के पीछे बैठे हैं , उन्हे आजाद करवाने की सुध किसी ने भी नहीं ली ।
 हमारी चमेली ने पूछा कि," यदि किसी की सरकारी नौकरी लगती है तो उसका पुलिस द्वारा जांच किया जाता है , बेदाग साबित होने पर ही नौकरी रहती है । अब ऐसे में उन नौजवानो का क्या होगा जिनहे पुलिस पकड़ कर ले गयी है । उनके भविष्य और सरकारी नौकरी का क्या होगा । " अब इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास भी नहीं था पर एक मेघावी वाणी ने यह कहा उसकी बाद में देखेंगे , अभी तो आन बान और शान की लड़ाई है । अभी इससे निपटते हैं । मैं ये नही समझ पाया कि उन नौजवानो के शान का क्या होगा जो सलाखों के पीछे पड़े हैं ।
विचार हुआ जरा उनका जायजा लिया जाए जो इस घटना के सूत्रपात के समय थे । उनलोगों की पीड़ा देख यह बवाल मचा था । पता लगा उन्हे कोई समस्या नहीं है । वो तो अपनी दिनचर्या में आराम से मशगूल हैं , कही किसी प्रकार का विरोधात्मक आभास नहीं है । मुझे याद आया उन बच्चों की कहानी जो एक खिलौने के लिए आपस मे  लड़ पड़े थे । उनकी लड़ाई देख दोनों के परिवारवाले आपस में गुत्थमगुत्था हो गए , एक दूसरे के जान के प्यासे हो गए । थोड़ी देर बाद दोनों बच्चे फिर से साथ खेलते नजर आए पर उनके घरवाले आपस में लड़ते नजर आए । यही तो यहाँ भी होता दिख रहा है । घटना के सूत्रपात और सूत्रधार दोनों मजे में है और बाकी जनता आपस में लड़े जा रही है । देखें कब पटाक्षेप होता है इस अल्पयुद्ध का ।

गली कूचा

राजनीति में कुछ भी अंतिम नहीं होता , कोई अपना नही होता । अब अपने कलेश्वर को ही लीजिये , एक समय था सबको दिखाने के लिए , अपनी साख बचाने के लिए महामंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिये तथा परोक्ष रूप से शासन चलाने के उद्देश्य से बलेश्वर को महामंत्री के पद पर बैठा दिये । सोचा होगा कि ये तो कुछ कहेगा नहीं और हम पर्दे के पीछे रहकर सत्ता चलाएँगे , आखिर राज तो अपना ही है । बलेश्वर सब बात मानेंगे  ही । समय करवट बदलता है , कुछ दिन तो बलेश्वर वही क़हत ए रहे जो कलेश्वर कहते जाते । पर जैसे ही दाव पेंच सीख गए , घुमाके पटकनी दे दिये । सत्ता के गलियारे में खबर उठी की जल्दी ही बलेश्वर को सत्ता से निकालकर कलेश्वर फिर से महामंत्री बनने जा रहे हैं । दल के फैसले में यह तो तय हो गया कि बलेश्वर को हटाकर कलेश्वर पदासीन होंगे , पर स्थिति ऐसी हैं कि यदि बलेश्वर अपने पद से इस्तीफा नहीं देते तो कलेश्वर कैसे पदासीन होंगे । जनता ने कलेश्वर को यह भी कहते हुए पाया कि जरूरत हुई तो हम अपने समर्थक मंत्रियों का परेड करवा देंगे , दिखा देंगे कि किसमे कितनी ताकत है । कयास लगाया जा रहा है कि कलेश्वर अपने समर्थक विधायकों के साथ किसी अन्य दल में शामिल हो सकते हैं , या फिर उस दल के सहयोग से सरकार बनाने का दावा पेश कर सकते है । अब यह तो रंगमंच ही तय करेगा कि कौन जीतेगा । जो भी हो इस क्रम में अपने दल का दो फाड़ होना तो तय है । अब देखा जाये कि ऊंट किस करवट बैठता है और किसे क्या मिलता है ।