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सोमवार, 2 दिसंबर 2024

Indo-Tibetan Border Police (ITBP) HEAD CONSTABLE RECRUITMENT

 


ITBP HEAD CONSTABLE RECRUITMENT

EDUCATIONAL QUALIFICATION - MATRIC

STARTING  DATE FOR APPLICATION - 24-12-2024

LAST DATE FOR APPLYING -22 JANUARY 2025

WEBSITE LINK     :    CLICK HERE

शनिवार, 9 सितंबर 2023

वे खलनायक नहीं थे - डॉ. गुणशेखर




आज राजेन्द्र जी पर जब लिखने बैठी हूँ, ऐन सुबह का वही समय है जब वे अपने पढ़ने के टेबल पर नियमित रूप से विद्यमान होते थे- अपनी शारीरिक-मानसिक विवशताओं के बावजूद, उस उम्र में भी। उनका वह कमरा, उनकी वह मेज, कुर्सी, किताबें और उनका वह दफ्तर सब उन्हें मिस कर रहे होंगे, ठीक मेरी ही तरह...


वर्षों की यह समयावधि यदि बहुत बड़ी नहीं तो बहुत छोटी भी नहीं है। मैं कलम लिए चुपचाप बैठी हूँ, लिखूँ तो क्या लिखूँ और नहीं लिखूँ तो क्या। शब्द जैसे चुक-से गए हैं। पर कहना तो है ही चाहे इस चुकी हुई भाषा में ही सही... 


यादें बहुत सारी हैं। हां,यादें हीं...हालांकि उन्हें यादें स्मृतियां कह कर संबोधित करते हुये अभी भी कलम थरथराती है, जुबां की तरह... मैं तय करती हूँ उनके लेखक और संपादक रूप पर नहीं लिखूँगी, वह सब तो जगविदित है। अभी बस वो बातें जो मुझसे या हमसे या हम सबसे जुड़ी हैं..


वह 1998 रहा होगा। 23 नव. को पिता की बरसी पर एक कविता लिखी थी – ‘क्षण–क्षण कर के न जाने बीत चुके है / कितने अंतहीन बरस / इतने बरस कम तो नहीं होते पिता / राम का वनवास भी खत्म हो गया था सिर्फ चौदह वर्षो मे /मेरी तपस्या का कोई अंत नहीं...क्षण भर को ही सही / मेरे सपनों मे आ जाओ पिता / मैं तुम्हारे साथ हँसना-हंसाना चाहती हूँ / खीजना-खिजाना चाहती हूँ/ जिदें करना और उन्हें मनवाना चाहती हूँ / चाहती हूँ तुम्हारे साथ, तुम्हारे सहारे जीना /अपना निलंबित बचपन।'...पिता नहीं आ सकत थे, वे नहीं आए थे। सपनों मे भी नहीं… पर यह दुआ जैसे कुबूल हो गई थी। उन जैसी ही एक छवि कुछ दिनों बाद मेरे दैनंदिन मे शामिल हो गई थी। हाँ, पिता की कमी, घर से दूरी सबका खामियाजा मैंने राजेन्द्र जी से ही चाहा। अपनी पहली मुलाकात से ही।  पिता जैसी ठहाकेदार हंसी, पाईप, किताबें, उनमें मुझे पापा का चेहरा दिखाई पड़ता। अगर मायके का सम्बन्ध स्त्रियों के अधिकार भाव, बचपने और खुल कर जीने से होता है तो मैं कह सकती हूं ‘हंस’ मेरा दूसरा मायका था।


मैंने राजेन्द्रजी से एक बार कहा था कि आपके कथित स्त्री विमर्श और आपके निजी जीवन के बीच एक लंबी खाई दिखती है। जिन अंतर्विरोधों का जिक्र आप दूसरे लेखकों के बारे में करते रहे हैं क्या आप खुद भी उनके शिकार नहीं?' उन्होंने हमेशा की तरह हंसते हुये ही जवाब दिया था- “स्त्री विमर्श को लेकर मैं जो कुछ भी सोचता हूँ, व्यवहार में भी ठीक वही उतार पाऊँ ऐसा हर समय संभव नहीं हो पाता। हां, मैं चाहता हूँ कि वैसा हो। मैं अपने इस अंतर्विरोध से संतुष्ट हूँ ऐसा नहीं है... मैं बार-बार खुद को संशोधित-परिवर्धित करने की मानसिक प्रक्रिया से गुजरता हूं। जिसे तुम सिर्फ स्त्री विमर्श के संदर्भ में देख रही हो, वह मेरे लिए अपने आप को पुन: संयोजित करने का प्रशिक्षण भी है। मैं जो हूँ और जो हो सकता हूँ या होना चाहता हूँ उस बीच की खाई को हमेशा कम करने की कोशिश करता रहा हूँ ।“ मैंने उनके व्यवहार में भी यही देखा था।


यह मेरी ‘उलटबांसी’ कहानी से जुड़ा प्रकरण है। पहली दृष्टि में तो राजेन्द्र जी ने इसे बकवास करार दिया... 

'बूढ़ी मां अचानक शादी कैसे कर सकती है, कौन मिल जायेगा उसे?'

'वह बूढ़ी नहीं है, प्रौढ़ा है. और गर पुरुषों को मिल सकती है कोई, किसी भी उम्र में, तो फिर औरत को क्यों नहीं?'

'होने को तो कुछ भी हो सकता है... वह कौन है.. कहां मिला, कैसे मिला कुछ भी नहीं...। '

'मुझे उसकी जरूरत नहीं लगती.. कहानी मां और बेटी के बदलते संबंधों की है...किसी तीसरे पक्ष की नहीं। सो उसके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अपूर्वा के भीतर की स्त्री अपनी मां के निर्णय में उसके साथ है, लेकिन उसके भीतर की बेटी अपने पिता की जगह पर कैसे किसी और को देख कर सहज रह सकती है? इसलिये बेहतर है वह अपनी मां के नये पति के बारे में ज्यादा दिलचस्पी न दिखाये।


राजेन्द्र जी ने दो–चार  दिनों बाद मुझसे पूछा था-'तेरी उस कहानी का क्या हुआ?'

'टाईप हो रही है।'

'फिर? '

'फिर... दूँगी कहीं ... '

'पहले मुझे पढ़ने के लिए देना।'

'लेकिन आप तो पढ़ चुके है...'

'मैं  फिर से पढ़ूँगा, कोई दिक्कत? '

'नहीं...'


और इस बार उन्हें यह कहानी पसंद आ गई थी। उनके भीतर बसे आदिम पुरुष के लिए भले ही एक माँ का उस उम्र  में लिया गया पुनर्विवाह का निर्णय अग्राह्य रहा हो पर उन्होंने अपने भीतर के संस्कारों और अंतर्विरोधों से लड़ते हुए एक स्त्री के पक्ष, तर्क और अनुभूतियों को समझने की चेष्टा की थी।


मुझे अब लगता है कि `होना/सोना...’ को  भी उस भाषा-शैली में लिखने के लिए सबसे पहली लड़ाई उन्हें खुद से ही लड़नी पड़ी होगी। वह लेख एक तरह से खुद को खोजने, चीन्हने की प्रक्रिया का ही एक अहम हिस्सा था। अपने भीतर के अंतर्विरोधों, आदिम पुरुष की आंतरिक बनावट और उसकी निर्मम मर्दाना भाषा-सोच की शिनाख्त। तब इस लेख की भाषा-शैली और कहन के लहजे पर भी बहुत सवाल उठे थे। पर शायद ही वह कोई स्त्री होगी जो कह सके कि उसने इस भाषा, ऐसी दृष्टि को कभी नहीं सुना-सहा; उससे वाकिफ नहीं हुई। भीतर और बाहर के द्वंद्व से लड़-जूझकर आग को आग और पानी को पानी कहने का उनका यही अंदाज़ उन्हें भीड़ में अलग करता था। 


कुछ भी नया करने, सीखने-समझने  के लिए  वो हमेशा तत्पर होते थे। सिखाने के लिए भी।  प्रूफ देखने में मुझे हमेशा से ऊब होती है, तब तो और भी होती थी। वही कहानी में डूब जाने, उसके साथ बह ल्रेने की आदत... मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि किसी रचना से ऐसे तटस्थ होकर कैसे गुजरा जा सकता है। मैं  उनसे भी कहती मुझसे नहीं होता यह सब। बहुत बोरिंग लगता है। तो कहते - 'कल को जब तेरी खुद की किताबें आएंगी फिर...शायद वो हमें आगामी दिनों के लिए तैयार कर रहे थे। संघर्ष के उन दिनों में किसी भी तरह हमें अपने पैरों पर खड़े  देखना चाहते थे और इसके लिए वो हरसंभव यत्त्न भी करते थे। 


राजेंद्र जी लोगों पर भरोसा बहुत जल्दी कर लेते थे। बच्चों की सी मासूमियत और सरल निश्छलता  के साथ...यहाँ उनका तर्कबुद्धि, विवेचनशक्ति किसी से कोई मतलब नहीं था। वे कल  के आए किसी पर उतना ही भरोसा  कर सकते थे जितना कि बरसों के किसी पुराने मित्र पर,  इस कारण उन्हे झेलना भी बहुत पड़ा। जहां उनके इस लगाव के कारण उनके अंध समर्थकों की कमी नहीं थी, वहीं ऐसे लोगों कि भी नहीं जो तनिक से मतभेद और अपने छोटे–छोटे स्वार्थों की पूर्ति होते न देख उनसे दूर जा खड़े होते थे। कहने की बात नहीं कि उनके इस हद तक टूटने और कुछ हदतक उनकी मृत्यु के कारण भी ऐसे ही संबंध रहे। उन्हें यह एहसास था कि वो अकेले पड़ते जा रहे हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर  उनके लिए कही जानेवाली अभद्र और अशालीन बातें... उनके आसपास कभी भी होने वाली हर महिला से उनके संबंध जोड़कर देखे  जा रहे थे, यह भी कहा जा रहा था कि उनके आसपास की औरतें सुरक्षित नहीं। मुझे इस बात का अफसोस है कि मैं उस वक़्त  चुप रही, मैंने इसका प्रतिवाद नहीं किया... मुझे यह कहना चाहिए था कि हम उनके साथ बहुत महफूज थे, उतने जितने कि यह सबकुछ लिखने-कहने वाले लोगो के साथ नहीं हो सकते थे। यह सिर्फ मेरा अनुभव  नहीं इसकी तसदीक अर्चना जी, वीणा जी से लेकर बहुत से लोगो से हो सकती थी... 


इसी संबंध में मुझे एक वाकया याद आ रहा है- हंस के 2003-04 के किसी अंक में कृष्णा अग्निहोत्री की एक आत्मकथात्मक कहानी आई थी- ‘ये क्या जगह है दोस्तों’ उस कहानी में उन्होने सिर्फ पत्रों के द्वारा ही किसी व्यक्ति से अपने आत्मिक लगाव और फिर उसके रूक्ष व्यवहार से अपने आहत होने की मार्मिक वेदना को बड़ी तरलता और सहजता से लिखा था। पत्रिका के उसी अंक में मेरी कहानी ‘भय’ भी आई थी। मुझे उनकी कहानी पढ़ते ही उस व्यक्ति की शिनाख्त में तनिक भी देर नहीं हुई, कारण कि  ठीक-ठीक वही बातें और उसी तरह के पत्र एक जनाब मुझे भी लिखते रहे थे। मुझे उनकी मंशा साफ समझ में आ गयी थी। मैंने एक दिन राजेंद्र जी से कहा कि जब मुझ जैसी बेवकूफ लड़की को भी उन सज्जन की हरकतें समझ मे आ रही थीं तो कृष्णा जी तो अनुभवी ठहरीं, उन्हे क्यो नहीं समझ में आया कि ... राजेंद्र जी ने कहा था कि तुम इस बात को नहीं समझ पाओगी, तुम्हारे साथ परिवार है। पर जब आदमी की उम्र होने लगती है, जब वह अकेला हो चलता है तब उम्मीद और प्यार के हरेक झूठे-सच्चे तन्तु को भी सम्भाल कर रखना चाहता है। उसी में उलझकर थोड़ा और जी लेना भी...


विद्यानिधि, मैं, संगीता, बलवंत और बाद में गीताश्री ने भी उनके लेखों के संकलन का काम किया। मैं, संगीता, मुक्ता हम सब अपने पीछे अपना बहुत कुछ छोड़ आए थे और दिल्ली में हमारे लिए रिश्ते और घर का मतलब सिर्फ राजेन्द्रजी ही थे।  वे हमारे लिए कल्पवृक्ष की तरह थे, हम सब ने उनमें जो देखा, जो खोजा वे हमारे लिए वही थे। वे अपने लिये तो जैसे थे ही नहीं। 


राजेश रंजन की जनसत्ता की नौकरी छूटने के बाद संगीता के लिए अपने पास कुछ काम देखना हो या ऐसी कोई और बात, वे ये सब ऐसे करते थे जैसे हमें नहीं उन्हें हमारी जरूरत हो। मैंने मुक्ता और मनोज को अपनी छोटी-छोटी शिकायतें उनसे करते देखा है- मसलन मुझे यह सिगरेट नहीं पीने देती। सारे खुले पैसे जेब से निकाल लेती है... आदि-आदि।  मैं भी अपनी सारी शिकायतें लेकर वहीं पहुँचती थी। अपनी आर्चीज़ की नौकरी के वक़्त किसी न किसी बहाने आधे दिन की छुट्टी लेकर शनिवार को भागकर नारायणा से दरियागंज, 2/36 अंसारी रोड ; हंस के दफ्तर उनसे मिलने के लिए पहुँचना... यूं भी हमारी  गृहस्थी के वे नए-नए दिन थे और हमें  भी किसी फ्रैड, फिलॉस्फर, गाइड की जरूरत थी और कहने कि बात नहीं कि...


उन दिनों उनके लंचबॉक्स मे आलू की एक सब्जी जरूर होती थी  पर इसके साथ-साथ जो दूसरी बात जरूर होती वह यह कि हंस के दफ्तर में उन दिनों हर आने-जानेवाले से मेरे आलू प्रेम की चर्चा ।अर्चना जी ने उनदिनों अपने लिखे एक लेख `तोते की जान ` मे इसका जिक्र भी किया है। हमसब  को यह गुमान था कि राजेंद्र जी हमसे बहुत स्नेह करते हैं और हमें ही नहीं उनसे मिलने वाले हरेक इंसान को यह गुमान होता होगा। उनदिनों मैं उनसे कहा करती थी कि `लड़की जिसने इन्जन  ड्राइवर से प्यार किया `[ई. हरिहरन की एक कहानी जिसका हिन्दी अनुवाद उनदिनों हंस मे आया था] की लड़की मैं हूँ और पादरी वो।  सहजीवन के उन्हीं दिनों में जब किन्ही कारणवश मैं और राकेश कुछ दिन अलग रहने का निर्णय लेना चाहते थे और मेरे फ्रीलान्सर होने की वजह से मुझे वर्किंग वुमेन हॉस्टल मिलने में भी परेशानी थी और उसका खर्च वहन कर पाने में भी , तब राजेंद्र जी ने यह सुझाव दिया था कि मैं मन्नू जी के साथ रह जाऊ और वो जो भी डिक्टेट करें मैं लिख दिया करूँ। मन्नू जी की आँखों मे उन दिनों परेशानी थी, उनकी  आत्मकथा का एक खंड उन्हीं दिनों छपा था और काफी चर्चित भी हुआ था। हालांकि यह संभव नहीं हो सका था पर मन्नू जी से मिलने की मेरी हार्दिक ईच्छा इसी कारण पूरी हो सकी थी।  राजेंद्र जी सबके लिया कितना सोचते थे यह भी उस दिन समझ सकी थीं ।


पाखी के विशेषांक मे उनपर लिखे गए लेख को लेकर मैं सहमी हुई थी, पता नहीं वो इसे किस तरह लें। कारण कि अपनी अपनी छोटी–छोटी शिकायतें, अपने छोटे–मोटे दुख; जो कि कभी न कभी हर संबंध में आते ही आते हैं और जिनका सम्बंध कहीं न कहीं हमारी असीम ईच्छाओं से होता है, मैंने उसमें वह सब दर्ज कर डाला था। पर उसके बाद जब मैं अपने पहले उपन्यास के लोकार्पण के लिए दिल्ली आई और  उनसे मिली तो वे उसी पुराने उत्साह और गर्मजोशी के साथ मिले। हमें हमेशा की तरह घर पर भी बुलाया। खाना बनवाकर रखा- गरम-गरम आलू की सब्जी और पूरिया। मुझे हाल में छपी कहानी ‘बावड़ी’ के लिए चेक दिया और सोनसी को चॉकलेट और पेन –'इससे नानाजी को चिट्ठी लिखना।' उन्होंने तीन साल की‌ उस बच्ची की कवितायें भी सुनी और उसी प्यार से तंबाकू न लेने की उसकी हिदायतें भी। तब यह कहाँ पता था की यह हमारी आखिरी मुलाक़ात है ...    

                              

 इन दिनों से पहले  ककि वह दौर जो बहुत सारी अनिश्चितताओं और मुश्किलों से भरा होता था. जब निश्चित आय का स्रोत नहीं था। हां लिखने और छपने के लिये जगहें थीं और काम भी इतना कि सारे असाइन्मेंट पूरे कर लिये जायें तो रहने-खाने की दिक्कत न हो। पर फ्री-लांसिग के पारिश्रमिक के चेकों के आने का कोई नियत समय तो होता नहीं, जल्दी भी आये तो तीन महीने तो लग ही जाते थे।  उस पूरे दौर में राजेन्द्र जी का साथ मेरे लिये इन अर्थों में भी एक बड़ा संबल था कि उस ढाई-तीन वर्षों के कठिन काल-खंड में उन्होंने मुझे किसी न किसी ऐसे प्रोजेक्ट में लगातार शामिल रखा जिससे थोड़ी बहुत ही सही मुझे नियमित आर्थिक आमदनी भी होती रही। हिन्दी अकादमी के  उस न आ सकनेवाले 'बीसबीं शताब्दी की कहानियां' के अलावे राजेन्द्र जी के साक्षात्कार, पत्रों और लेखों की किताबों का संयोजन-संपादन उसी समयावधि की उपलब्धियां हैं।

               

सिर्फ मैं ही नहीं, मेरी जानकारी में ऐसी मदद उन्होंने कई लोगों की की थी। वह मटियानी जी की की अन्तिम कहानी थी जो हंस में छपी थी। नाम शायद 'उपरान्त' है। उसके छपने की भी एक अलग कहानी है। मटियानी जी काफी दिनों से अस्वस्थ थे, यह बात पूरी हिन्दी-पट्टी को पता था। न उनकी दिमागी हालत ठीक थी न आर्थिक स्थिति। सिर में अनवरत दर्द रहने की शिकायत उन्हें उन दिनों लगातार रहती थी। ऐसे में कही जाते वक़्त राजेंद्र जी रास्ता बदलकर उनसे मिलने चले गए थे और उन्हें यह कहकर कुछ रुपये, अगर मुझे ठीक याद है तो शायद 10 हजार; थमा आये थे कि यह तुम्हारी कहानी का अग्रिम पारिश्रमिक है। तुम मुझे जल्दी से अपनी कहानी लिखकर भेजो...  न लिखने के अपने तमाम बहाने रहने दो। मटियानी जी ने भी अपनी उसी मानसिक स्थिति में जल्दी से जल्दी कहानी पूरी करके भेजी थी। यह सारा वाकया मुझे कहानी के साथ आई मटियानी जी की चिट्ठी से ही मालूम हुआ था, जिसमें उन्होने राजेंद्र जी के इस आकस्मिक  आगमन और अचंभित कर देने वाले स्वभाव की चर्चा काफी गदगद होकर की गयी थी। चूकि उन दिनों चिट्ठियों के संग्रह पर काम करने के कारण चिठ्ठिया मैं ही  संभाल रही थी इसलिए यह वाकया ज्यों-का-त्यों याद है अभी भी...


मेरी शुरुआती कहानियां वे यह कहकर लौटाते रहे कि `इसमें तू कहाँ है’।  उनके संकेत शायद मैं नहीं समझ पा रही थी। तब बाद में उन्होने स्पष्ट शब्दों में कहा कि `तू अपने अनुभव लिखने से क्यों हिचक रही है? परिवार, समाज और आसपास की बातें तथा खुद अपने भीतर के द्वंद्व जैसे विषयों पर हमारे यहां कहानियाँ बहुत कम है।‘  उनका सूक्ष्म इशारा मेरे सहजीवन की तरफ था। यह उनके कहे का ही नतीजा था कि मैं अपने भीतर के भय से जूझकर `मेरी  नाप के कपड़े’, `भय’ और `आशियाना’ लिख सकी। मैं लड़ सकी इस भय से कि मैं पहचान ली जाऊँगी। यदि उन्होने वो कहानियाँ लौटाई न होती तो पता नहीं कब मैं अपने इस भय से मुक्ति पाती। 


चार वर्षों के सहजीवन के बाद जब मैंने और राकेश ने शादी का निर्णय लिया तो राजेन्द्रजी ने मुझे यह कहा था कि- `अच्छी तरह सोच विचार कर निर्णय लेना। इसलिए तो बिलकुल भी नहीं कि चार साल तक साथ रहने के बाद अलग हुई तो लोग क्या कहेंगे?‘ शादी के ठीक दो दिन पहले उनकी यह बात जाहिर है मुझे तब उतनी अच्छी नहीं लगी थी पर अब तटस्थ भाव से सोचूँ तो उसके निहितार्थ समझ में आते है और हमारे लिए उनकी चिंता भी...


अंतिम दिनों में कभी राकेश कि छुट्टी पर बात जा अटकती, कभी सोनसी के स्कूल और क्लास पर...वे फिर भी चाहे जन्मदिन हो या हंस की गोष्ठी  यही कहते रहे - 'तू आ जा, उस साले को छुट्टी नहीं है तो बेटी को लेकर आजा।' आज दुख है तो सिर्फ यह है कि वे बार-बार कहते रहे पर मैं उनसे मिलने नहीं जा सकी। पूरे डेढ़ साल। इतने दिन तो कभी नहीं बीते थे उनसे मिले बगैर। 


और फिर एक दिन ...


 दिल्ली जाने और उनसे मिलने की वह बेचैनी भी अब कभी नहीं होगी। उनके जाने के साथ जैसे भीतर बहुत कुछ मरा है... टूटा है किरिच-किरिच। मैं पोली हो गई हूँ जैसे ....

मंगलवार, 1 अगस्त 2023

IBPS SPECIALIST OFFICER RECRUITMENT EXAM

बैंकों में राजभाषा अधिकारी की सीधी भर्ती

IBPS PO & SO 2023 Recruitment
 
Registration Starts 1st Aug.

Reg. Date » From 1st till 21st August 2023

Exam Dates

IBPS PO :  Prelims: September/ October 2023
Mains: November 2023 
Interview: January/February 2024

IBPS SO : Prelims: December 2023

Mains: January 2024

Interview: February/March 2024

Detailed advertisement:

Application Link:


मंगलवार, 18 जुलाई 2023

Certificate course in Translation केवल 3 महीने का कर SSC JHT के लिए elig...

Admission link


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*अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर*( सावित्री बाई फुले पुणे विश्वविद्यालय से संबद्ध )*के हिंदी विभाग* *की* *ओर से अनुवाद का* *सर्टिफिकेट कोर्स* *ऑनलाइन* *शुरू किया जा रहा है।

_आज दुनिया के सभी देश एक_- दूसरे से जुड़े हैं, जिसमें भाषा  महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । इस अनुवाद के कोर्स से आप अनुवादक  तथा हिंदी अधिकारी के रूप में काम करने के लिए अपने- आप को तैयार कर सकते  हैं।

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Today's multicultural and multilingual society needs effective and efficient communication between languages and cultures. Practical application of translation will help students to apply as Official language officers in government offices like Bank , Railways, Defence , BSNL, etc.

 *_Name of the course_ :* *Certificate course in* *Translation studies. Hindi to English and vice versa* 
 *Organising Department:* *Department of Hindi* 
 *Name of the coordinator* : *Dr* . *Poornima B.Behere* 
 *Head of the department* : *Prof. Dr.* *Richa Sharma* 
 *Eligibility for admission* : *10+2 ( any* *stream)* 
 *Duration of course* :  *3* *months* 
 *Fees  : ₹ 1500
( U.G  Students can earn 2 credit points by joining this course)

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*Mode of class is ONLINE*

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 _For further details_ _contact_
 Coordinator: 9325331641
HOD : +91 93702 88414

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*Last day to fill the form  is 20 July 2023*

 *Classes will be on Saturday  and Sunday from 6 pm to 8 pm


रविवार, 8 फ़रवरी 2015

गली कूचा -2

खबरों में देखा कि हमारे मित्र के मुहल्ले में अशांति का माहौल है । पिछले कुछ दिनों से रैपिड एक्शन टीम मुहल्ले में डेरा डाले हुए पड़ी है । लोगों में भय एवं अनिश्चितता का माहौल है । कुछ लोगो ने तो अपने बाल बच्चों को कहीं सुरक्षित स्थान पर भेज दिया । क्या पता कल क्या हो जाए । औद्योगिक इलाका , मजदूरो की श्रेणी अधिक है जिन्हे  रोज कमाना और रोज खाना है । कल कारखाने भी बंद हैं । जाएँ तो जाएँ कहाँ वाली स्थिति पैदा हुई है ।
घटना की तह मे जाकर तहक़ीक़ात किया तो पता लगा कि मुद्दा कुछ खास नहीं है । एक समुदाय की धार्मिक शोभायात्रा चल रही थी । इसमें कुछ शरारती तत्वों ने विघ्न पैदा कर दिया । यात्रा करने वालों के साथ मार पीट और अभद्रता की गई । ऐसा नहीं कि उस यात्रा में शामिल लोगों ने इस अभद्रता को सहन किया हो । उन्होने भी सामर्थ्य भर प्रतिकार तो किया ही । बस विरोध का जामा चढ़ गया और हल्का फुल्का झगड़ा कौमी रंग में ढल गया । तलवारें खींच गई और लड़ाइयाँ होने लगी । आनन फानन में प्रशासन ने कर्फ़्यू लगा दिया । कुछ भय और आतंक से तो कुछ पुलिस द्वारा अरेस्ट होने का डर , सबको शांत किए था । मनौवल का दौर चला । जिसकी कोई जरूरत भी नहीं थी वह भी दल का मुखिया बन समझौते के उद्देश्य से बैठकें करने लगा । शांति बहाल कने के लिए कोई भी तैयार नहीं था । किसी ने भी स्कूल जाने वाले उन बच्चों के बारे में नहीं सोचा जिनकी परीक्षा चल रही थी जो इस हंगामे को भेंट चढ़ गयी , अब बेचारों को एक साल और परिश्रम उसी क्लास  में करना  पड़ेगा । उन मजदूरों के बारे में किसी ने नहीं सोचा जो बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी की किसी तरह से जुगाड़ कर पाता था , आज सात दिन से घर में भूखा बैठा है । किसी ने उन बीमार जनों की सुध नहीं ली जो इस घटना के प्रारम्भ में चोट खाये हुए अस्पताल मे पड़े हुए थे । सब अपने अपने आन के लिए लगे हुए थे विरोध  करने में । लगभग सौ से अधिक जवान शांति भंग करने के आरोप में कहें या फिर शांति बनाए रखने के लिए पुलिस के हत्थे चढ़ कर जेल के सलाखों के पीछे बैठे हैं , उन्हे आजाद करवाने की सुध किसी ने भी नहीं ली ।
 हमारी चमेली ने पूछा कि," यदि किसी की सरकारी नौकरी लगती है तो उसका पुलिस द्वारा जांच किया जाता है , बेदाग साबित होने पर ही नौकरी रहती है । अब ऐसे में उन नौजवानो का क्या होगा जिनहे पुलिस पकड़ कर ले गयी है । उनके भविष्य और सरकारी नौकरी का क्या होगा । " अब इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास भी नहीं था पर एक मेघावी वाणी ने यह कहा उसकी बाद में देखेंगे , अभी तो आन बान और शान की लड़ाई है । अभी इससे निपटते हैं । मैं ये नही समझ पाया कि उन नौजवानो के शान का क्या होगा जो सलाखों के पीछे पड़े हैं ।
विचार हुआ जरा उनका जायजा लिया जाए जो इस घटना के सूत्रपात के समय थे । उनलोगों की पीड़ा देख यह बवाल मचा था । पता लगा उन्हे कोई समस्या नहीं है । वो तो अपनी दिनचर्या में आराम से मशगूल हैं , कही किसी प्रकार का विरोधात्मक आभास नहीं है । मुझे याद आया उन बच्चों की कहानी जो एक खिलौने के लिए आपस मे  लड़ पड़े थे । उनकी लड़ाई देख दोनों के परिवारवाले आपस में गुत्थमगुत्था हो गए , एक दूसरे के जान के प्यासे हो गए । थोड़ी देर बाद दोनों बच्चे फिर से साथ खेलते नजर आए पर उनके घरवाले आपस में लड़ते नजर आए । यही तो यहाँ भी होता दिख रहा है । घटना के सूत्रपात और सूत्रधार दोनों मजे में है और बाकी जनता आपस में लड़े जा रही है । देखें कब पटाक्षेप होता है इस अल्पयुद्ध का ।

गली कूचा

राजनीति में कुछ भी अंतिम नहीं होता , कोई अपना नही होता । अब अपने कलेश्वर को ही लीजिये , एक समय था सबको दिखाने के लिए , अपनी साख बचाने के लिए महामंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिये तथा परोक्ष रूप से शासन चलाने के उद्देश्य से बलेश्वर को महामंत्री के पद पर बैठा दिये । सोचा होगा कि ये तो कुछ कहेगा नहीं और हम पर्दे के पीछे रहकर सत्ता चलाएँगे , आखिर राज तो अपना ही है । बलेश्वर सब बात मानेंगे  ही । समय करवट बदलता है , कुछ दिन तो बलेश्वर वही क़हत ए रहे जो कलेश्वर कहते जाते । पर जैसे ही दाव पेंच सीख गए , घुमाके पटकनी दे दिये । सत्ता के गलियारे में खबर उठी की जल्दी ही बलेश्वर को सत्ता से निकालकर कलेश्वर फिर से महामंत्री बनने जा रहे हैं । दल के फैसले में यह तो तय हो गया कि बलेश्वर को हटाकर कलेश्वर पदासीन होंगे , पर स्थिति ऐसी हैं कि यदि बलेश्वर अपने पद से इस्तीफा नहीं देते तो कलेश्वर कैसे पदासीन होंगे । जनता ने कलेश्वर को यह भी कहते हुए पाया कि जरूरत हुई तो हम अपने समर्थक मंत्रियों का परेड करवा देंगे , दिखा देंगे कि किसमे कितनी ताकत है । कयास लगाया जा रहा है कि कलेश्वर अपने समर्थक विधायकों के साथ किसी अन्य दल में शामिल हो सकते हैं , या फिर उस दल के सहयोग से सरकार बनाने का दावा पेश कर सकते है । अब यह तो रंगमंच ही तय करेगा कि कौन जीतेगा । जो भी हो इस क्रम में अपने दल का दो फाड़ होना तो तय है । अब देखा जाये कि ऊंट किस करवट बैठता है और किसे क्या मिलता है । 

शनिवार, 20 सितंबर 2014


वादियों में एक बर्फीली शाम



वादियों में एक बर्फीली शाम
बिनय कुमार शुक्ल

दूर गगन की छाँव  में
तन्हा था वो गाँव,
घनी वादियाँ  ढकी हुई थी बर्फीले चादर में ,
इन का मालिक, शायद परिचित था मेरा कोई,
रहता था वो दूर कहीं ।
मेरे आने, रुकने की आहात
देख नहीं सकता था वो अभी ।

मेरा साथी  ,चेतक मेरा
चौंक उठा मेरे रुकने पर ,
ना कहीं छाया , ना कोई ठौर
क्यों बढ़ आया था मैं इस ओर ,
हल्के झोंके से  रोका उसने,
अपनी भाषा में टोका उसने
क्यों बढ़ आया था मैं इस ओर ।

खूब घनी ,अप्रतीम सुंदर हो तुम
पर कुछ वादा मुझको है निभाना,
ऐ वादियों ना ठहरूँगा अभी ,
दूर मुझे है जाना ।

कविता : वादियों में एक बर्फीली शाम




दूर गगन की छाँव  में
तन्हा था वो गाँव,
घनी वादियाँ  ढकी हुई थी बर्फीले चादर में ,
इन का मालिक, शायद परिचित था मेरा कोई,
रहता था वो दूर कहीं ।
मेरे आने, रुकने की आहात
देख नहीं सकता था वो अभी ।

मेरा साथी  ,चेतक मेरा
चौंक उठा मेरे रुकने पर ,
ना कहीं छाया , ना कोई ठौर
क्यों बढ़ आया था मैं इस ओर ,
हल्के झोंके से  रोका उसने,
अपनी भाषा में टोका उसने
क्यों बढ़ आया था मैं इस ओर ।

खूब घनी अप्रतीम सुंदर हो तुम
पर कुछ वादा मुझको है निभाना,
ऐ वादियों ना ठहरूँगा अभी ,
दूर मुझे है जाना ।

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

मामाजी



        'मामाजी', यूं तो मेरे मामाजी थे पर मुहल्ले के मेरे उम्र के सारे लड़के उन्हें मामाजी ही कहा करते थे।कलकत्ता शहर के समीपवर्ती इलाका हाजीनगर में रहते थे।बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।आजादी के पहले के थे।उनके बचपन का सुनहरा समय 'बर्मा' और रंगून में बीता था।उनके पिताजी वहां सोने चांदी का व्यापार करते थे।वैसे तो रहने वाले उत्त्र प्रदेश के थे पर रोजी रोटी से पिताजी के जुड़े होने के कारण वो भी वहीं रह रहे थे।उस समय की बातें एवं कई प्रकार की बाते बताते थे जो कि हमारे लिए परी लोक की कथाओं से भी बढ़कर रूचिकर लगता था।हम सदा इस इंतजार में रहते थे कि कब समय मिले और हम कब उनसे मिलने पहुंच जाएं।जब भी कभी वो हमारे यहां आते हम बच्चों की टोली उनको घेर लेती थी कहानियां सुनने के लिए।उनके द्वारा सुनाए गए कहानियों क कुछ अंश :
        एक बार की बात है।विश्वयुद्ध पूरे जोरों पर था। सभी लोग अपना सबकुछ समेटकर सुरक्षित निकल जाने के प्रयास में लगे हुए थे।मामाजी के पिताजीह्यनानाजीहृ भी अपना सबकुछ समेटकर निकलने के प्रयास में लगे थे।फौजी गाड़ियों के अलावा कोई साधन न था।आवागमन के हर रास्ते बंद थे।कुछ आगे जाने पर अमेरिकी सेना की एक टुकड़ी मिली सभी लोग परेशान थे।इकलौती जीप खराब जो हो गई थी। किसी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था।नानाजी वहीं पास में बैठे यह सब देख रहे थे।उनसे रहा नहीं गया।आगे बढ़ चले सहायता को।हैरानी की बात यह थी की उन्हें गाड़ियों के बारे में कुछ भी पता नहीं था और चले थे गाड़ी ठीक करने।वेशभूषा एवं    व्यक्तित्व से दबंग दिखते भी थे।

        'क्या  बात है साहब क्या परेशानी है?
        हमारी गाड़ी खराब हो गई है।अरे मैन टुमसे हो पाएगाॐॐॐ

        'कोशिश करके देखते हैं।' नानाजी ने कहा और फिर चारों ओर से मुआयना करने लगे।सभी कौतुहल से उनको देख रहे थे।थोड़ी देर के बाद उन्हें एक तार लटकता हुआ दिखाई दिया।नानाजी ने सोचा 'हो ना हो समस्या इस तार की वजह से है।नानाजी ने कहा कि इस तार को जोड़ो और फिर गाड़ी स्टार्ट करो।
        मानो चमत्कारहो गया हो।घर्र की आवाज के साथ गाड़ी स्टार्ट हो गई।फौज के कमांडर ने उनका धन्याद किया और नाम पूछा।नानाजी ने अपना नाम 'बाप' बताया।नानाजी  सेना के उस टुकड़ी के सभी लोगों के 'बाप' बन गए।उन्हें उस टुकड़ी के साथ मैकेनिक के रूप में रहने का मौका मिल गया।
        युद्ध के बादल कट गए।धीरे धीरे सेना वापसी की ओर मुड़ी।उस टुकडी के कमांडर ने 'बाप' से आग्रह किया कि उनके साथ उनके देश चल चलें ।पर नानाजी को अपने गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू पुकार रही थी और उसके आगे सबकुछ फीका है।नानाजी ने घर जाने की जिद पकड़ लिया।अंत में उन्हें असम के रास्ते लाकर सपरिवार कलकत्ता के पास छोड़कर वह टुकड़ी अपने देश रवाना हो गई।नानाजी अपने गांव की ओर रूख किए।
        सोचा था कि गांव पहुंचकर स्वागत होगा।अपने लोग विछुड़े को गले लगाएंगे।पर यह क्या? घर पहुंचते ही परिवार के सदस्यों ने उन्हें परिवार से अलग कर दिया तथा उनके हिस्से की जमीन जायदाद में भी उन्हें नहीं दिया।नानाजी फिर से रास्ते पर आ गए।
        क्या करते अपनों से निकाले जाने के बाद 'नानाजी' सपरिवार कलकत्ता आ गए गुजर बसर करने के लिए।उन दिनों मामाजी की उम्र लगभग बारह साल रही होगी।
        इतनी कम इम्र और फिर परिवार के ऊपर पड़ा बोझ सबने मिलकर मामाजी को समय के पहले ही समझदार बना दिया।मामाजी ने भी परिवार के भरण पोषण के लिए कुछ करने की ठानी।शरीर हृष्ट पुष्ट था।उन दिनों मनोरंजन के लिए रामलीला एवं नाटक का प्रचलन था।लोगों की भाीड़ उमड़ती थी ऐसे कार्यक्रमों को देखने के लिए।
        यहां से मामाजी के जीवन ने एक नई शुरूआत की।मामाजी रंगमंच एवं रामलीला में अभिलनय करने लगे।इसमें उनके छोटे भाई भी उनका साथ देने लगे।धीरे धीरे कलाकार के रूप में परिपक्व होते गए एवं इस क्षेत्र में नाम कमाते गए।रंगमंच पर अधिकतम खलनायक की  भूमिका करते थे।कभी बाली तो कभी रावण,कभी कंस तो कभी सुल्ताना डाकू ।ऐसा सजीव अभिनय करते थे कि जैसे वह पात्र जीवंत हो उठा हो।'भाईजी' के नाम से कई शहरों में उन्हें जाना जाने लगा था।बंगाल से लेकर दिल्ली तक उनके अभिनय की तारीफ होती थी।उन्हीं दिनों की एक घटना का जिक्र उन्होंने किया जिसे सुनकर हम हंसते हंसते लोटपोट हो गए।दरअसल परिस्थिति के अनुसार हास्य कैसे मंचन किया जाता है इसका यहा ज्वलंत उदाहरण है यह घटना।
        नाटक का मंचन चल रहा था। एक आदमी मामाजी के छोटे भाई से बार बार आग्रह कर रहा था कि उसे भी एक बार मंच पर आकर अभिनय करने का मौका दें।टालते टालते दो दिन हो गया था पर वह मान नहीं रहा था। अनंतः दूसरे दिन मामाजी को उसे मौका देना पड़ा।उससे उन्होंने कहा कि तुम मंच पर आकर माईक और दर्शकों की ओर देखते हुए तीन बार कहोगे “मैं कौन हूं।'
        सुझाव के अनुसार वो मंच पर आकर बार  “मैं कौन हूं' तीन बार बोला।उसका वाक्य खत्म ही हुआ था कि मामाजी पर्दे के पीछे से बाहर निकले और जोर से बोले, 'तुम बेबकूह हो, गधे हो, सनकी–पागल हो।'
        इतना सुनते ही उसने गर्दन झुका लिया तथा गालियां बकता हुआ मामाजी के पीछे दौड़ पड़ा।
        दर्शक ठहाके लगाकर हंसते हंसते लोटपोट हो गए।मामाजी मंच से भागे और फिर मंच पर वापस।
        बहादुरी में तो मामाजी जैसे मिसाल थे।एकबार दिल्ली रेलवे स्टेशन पर गाडी के आने का इंतजार कर रहे थे।उन दिनों एक अनोखे ढंग की ठगी होती थी दिल्ली में।चलते चलते अचानक एक आदमी अपना बटुआ गिरा देगा।ऐसा जान पड़ता है मानो अनजाने में उससे ऐसा हो गया हो।पीछे से दूसरा आकर उसे उठा लेगा।तबतक एक तीसरा भी प्रकट हो जायेगा और देखने लगेगा कि उस बटुए में क्या है।इस क्रम में दोनों आपस में झगड़ा करने का अभिनय करेंगे।फैसला करवाने के लिए पास के किसी राहगीर के पास जाएंगे और कहेंगे कि इस बटुए में सोना निकला है।दिखा भी देंगे।फिर बंटवारे के नाम पर आपको प्रलोभन देंगे कि इस सोने को एकदम मिट्टि के भाव बेच रहे हैं आप खरीद लें।वस्तु देखने में सोना है प्रतीत होगी पर वास्तव में नकली सोना होता है।यह सब कुछ सुनियोजित ढम्ग से किसी यात्री को लक्ष्य करके किया जाता था।इस झांसे में कई लोग फंस कर धोखा खा जाते हैं।ऐसा अब भी होता है पर प्रकार बदल गया है।मामाजी को भी लक्ष्य करके ऐसी विसात बिछाई गई।सोना गिरा और लोग इसे लेकर मामाजी के पास बेचने का बहाना करके आए। ाांमाजी ने ऐसे हतकंडे बहुत देखे थे।उन्होंने उनपर दोहरी चाल चली।पहले से ही सोचकर बैठे थे कि चार पर तो भारी पड़ते है थे एक दो और आ जाएं तो कोई बात नहीं।इनको क्या ठगते।मामाजी ने उन दोनों को पकड़ लिया और सोना छीन लिया यह कहते हुए कि जिसका बटुआ गिरा था वह मेरा भाई है।लाओ इसे मुझे देकर चलता बनो वर्ना बहुत मार मारूंगा।
        अब बारी उन ठगों की थी हैरान होने की।लेकिन ठग तो ठग ही ठहरे।वे एक और हथकंडा चले, पुलिस को बुलाने की।पुलिस के वेष में उनका अपना ही आदमी था।धौंस एवं घूसों की बौछार चली पर जब तीनो को दबोचे मामाजी उनपर चढ़ बैठे तो ठगों ने हाथ जोड़ लिया और मामाजी से माफी मांगत हुए वहां से रफूचक्कर  हो गए।
        बहुमुखी प्रतिभा के तो थे ही, कला के साथ साथ ज्योतिष एवं तंत्र–मंत्र का भी ज्ञान रखते थे और समय असमय इस विद्या के सहारे लोगों की मदद भी किया करते थे।अच्छे ज्योतिष ज्ञान के धनी होने के कारण लोगो लोगों के खोए हुए सामान अथवा गुम हुए लोगों का लगभग सटीक पता बता देते थे।इनके इस सेवा कार्य ने एक दिन उनको जेल की भी यात्रा करवा दिया।हुआ कुछ यूं कि एक दिन एक सज्जन जिनका लड़का कहीं खो गया था, अपने बच्चे के बारे में पता लगाने के लिए इनके पाास आए।मामाजी ने बच्चा किस शहर में है तथा कि स्थान पर है गणना करके बताया।लोगों को बच्चा मिल गया।बच्चे के पिता ने मामाजी पर अभियोग लगाया कि उसे 'मामाजी' ने ही गायब करवा दिया था।बेचारे बुर फंसे।बाद में किसी तरह से छूट कर आए।
        कहते हैं कि कलाकार का दिल बहुत बड़ा होता है पर उम्र के ढलान से उसकी प्रसिद्धि,तेज एवं नाम सबकुछ ढलने लगता है। वक्त के साथ अंतिम पड़ाव के कुछ दिनों पहले मधुमेह के सिकंजे में ऐसा फंसे कि एक समय आया जब दशा खराब हो गई,सही चिकित्सा के अबाव में असमय ही दुनियां से कूच कर गए,पर यादों के झरोखों में लगता है जैसे अब भी कहीं आसपास ही बैठे हों अपने बीते समय के किस्से सुनाते हुए।

बक्रेशवर : एक अनोखा धर्मस्थल


        उन दिनों मैं कलकत्ता में था।चिकित्सा कार्य में संलग्न होने के कारण लायंस क्लब की ओर से आयोजित नेत्र जांच शिविरों में शामिल होता रहता था।एक दिन लायन्स क्लब हावड़ा की ओर से तीन दिवसीय आई कैंप में जाने का आमंत्रण मिला।इतनी लम्बी अवधि का कार्यक्रम पहली बार मिला था और फिर नया स्थान देखने का लोभ मैं झट से तैयार हो गया।लगभग 20 ऑप्टोमेट्रिस्टों का दल इस अभियान में शामिल हुआ।पूरे क्षेत्र के  ऑप्टोमेट्रिस्ट इसमें शामिल थे।

        पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में 'सूरी' सबडिवीजन में आता है यह स्थान।हमारी यात्रा बस द्वारा 'हावड़ा मैदान' के 'लायंस हास्पिटल' से शुरू हुई।सभी अलग अलग स्थानों से आए हुए थे लिहाजा जान पहचान बनाने में कुछ वक्त लग गया।लगभग पंद्रह बीस मिनट के बाद हम सब एक दूसरे को जानने–पहचानने लगे थे।उन दिनों बंगाल की राजनीति में उथल पुथल मचाने वाली एक घटना चल रही थी 'सिंगुर' में 'टाटा मोटर' की नैनो परियोजना को लेकर।अखबारों में तो बहुत कुछ पढ़ने को मिलता था पर उस स्थान को देखने का अवसर इस यात्रा के दौरान हो गया।हमारे गंतब्य के रास्ते में यह स्थान भी मिला।सचमें एक लम्बा चौड़ा इलाका इस काम के लिए लिया गया था,ठीक सड़क के किनारे।चलते रहे हम यँू ही नजारे देखते हुए और नए गीतों के छम्द सुनते हुए।लगभग डेढ़ घंटे की यात्रा करके हम 'बक्रेश्वर' पहुंच गए।

        बक्रेश्वर जैसा कि नाम से ही परिलक्षित होता है, इस स्थान का नाम मुनि अष्टाबक्र के नाम पर रखा गया है।यहां के मंदिर में सबसे अलग बात यह देखने में आता है कि भगवान के पहले भक्त की पूजा की जाती है यानि की 'ऋषि अष्टाबक' की पूजा भगवान शिव की पूजा के पहले की जाती है।ऐसा विश्वास है कि ऋषि अपने समय के विद्वानों में से सर्वोपरि थे।उन्होंने यहां वर्षों भगवान शिव की तपस्या की जिसके फलस्वरूप उन्हें भगवान का आशिर्वाद प्राप्त हुआ।

        नेत्र जांच कैंप यहां के एक आश्रम में लगाया गया था जहां हमारे भोजन का भी प्रबंध था।एक सुदूर ग्रामांचल जहां सुविधाओं के नाम पर शायद कुछ खास नहीं पर एक तीर्थ स्थान एवं भ्रमणस्थल है।साधारण से रहन सहन वाले सच्चे एवं सीधे सादे लोग।चिकित्सा सुविधाएं भी लगभग साधारण ही उपलब्ध।लायंस क्लब की ओर से यहां हर तिमाही इस प्रकार का कैंप लगाया जाता है जिसमें निःशुल्क नेत्र जांच, निःशुल्क चश्मा वितरण एवं आवश्यकतानुरूप शहर लेजाकर 'मोतियाबिंद' के मरीजों का निःशुल्क आपरेशन कराया जाता है।इस कैंप के दौरान यहां के युवा हमारे कार्य में सहयोग भी दे रहे थे तथा यहां के बारे में हमें बता भी रहे थे।यही युवा यात्रियों के लिए गाईड का भी काम करते हैं।

        शाम के समय हम पास के बाजार गए।दशहरा का समय था। बाजार में काफी चहल पहल थी।एक मेला सा लगा हुआ था।ज्यादातर लोग या तो ग्राम्ीण थे या आदिवासी।इनकी भाषा एवं संस्कृति में बंग्ला और भोजपुरी्रझारखंडी भाषा का मेल था।लगता था जैसे यहां आने के बाद बंगला भाषा से मिलकर इन आदिवासियों की भाषा मिली जुली भाषा हो गई हो।शायद इस भाषा को कोई नाम अबतक ना मिला हो क्योंकि पूछने पर लोग इस भाषा का नाम नहीं बता पाए।बहुत ही रंगीन माहौल था।अपने अपने कामों से फारिग होकर हर व्यक्ति  खरिददारी में लगा हुआ था।ऐसा लग रहा था कि यहां  समय एवं काल के हिसाब से बाजार शायद रात में ही लगती है।आवश्यकता एवं उपयोग की हर सामग्री उपलब्ध है।

        दूसरे दिन हम कैंप की जिम्मेदारियों से कुछ हल्का हुए।हमने यहां के दर्शनीय स्थानों पर जाने का कार्यक्रम बनाया।चिकित्सा कैंप में सहायता कर रहे स्थानीय युवा हमारे साथ हो लिए।अधिकतर ये युवा या तो गाईड का काम करते हैं या फिर मंदिर में पुरोहित का।बहुत ही खुशमिजाज एवं व्यवहार कुशल।इस स्थान के बारे में अधिकांश जानकारी उनलोगों द्वारा ही मिली।सबसे पहले हम 'अष्टाबक्र महाराज ' के मंदिर में गए।वहीं से हमारे देव दर्शन की यात्रा शुरू हुई।मंदिर के अंदर माता 'आदि शक्ति' का मंदिर है।कहते हैं कि माता सती के वियोग में जब भगवान शिव उनके शरीर को लिए हुए विक्षिप्त से होकर फिर रहे थे, भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र की सहायता से सती के शरीर के कई टुकड़े किए थे।वो अंश जहां जहां गिरे वहां एक शक्तिपीठ की स्थापना हुई।ऐसे 51 शक्तिपीठ  हैं जिनमें में से एक शक्तिपीठ यहां भी है।यहां माता के भौंहें गिरे थे।अब तो भौंहों के रूप में वहां पाषाण शिला के अंश हैं जिन्हें छूकर अनुभूति की जा सकती है।बड़ा ही पावन स्थल है।

        यहां से कुछ दूरी पर एक ताप विद्युत केंद्र है।इस स्थान की सबसे अनोखी बात यह है कि मंदिर के पास ही दस कुंड बने हुए हैं जिनमें से अधिकांश में से खौलते हुए पानी को निकलता हुआ देखा जा सकता है।इन खौलते हुए जल का तापमान कहीं 65 से लेकर 80 डिग्री सेल्सीयस तक होता है।अलग अलग नामों से अलंकृत अलग अलग कुंड ।इन कुंडों को गंगा का ही रूप माना जाता है तथा इनके नाम के साथ गंगा शब्द जुड़ा हुआ है जैसेः पापहरण गंगा, बैतरणी गंगा, खार कूंड, भैरव कुंड, अग्नि कुंड, दूध कुंड, सूर्य कुंड, श्वेत गंगा, ब्रम्ह कुंड, अम्रित कुंड।इन कुंडों से निकलने वाले जल में बहुत सारे रसायन मिले हुए हैं और कहा जाता है कि इनमें औषधीय गुण भी है।स्थानीय लोगों के अनुसार गर्म जल के इन कुंडों के रहस्य को जानने के लिए खोज एवं जांच कार्य जारी है।
        तीन दिनों का यहां का सफर हमारे लिए एक अवसर दे गया कि हम अपने देश के ऐसे सुदूर स्थानों पर स्थित लोगो एवं संस्कृति को देख और जान सकें।रेल तथा सड़क मार्ग से भी यहां पहुंचा जा सकता है।हावड़ा स्टेशन से लोकल ट्रेन बहुतायत रूप में उपलब्ध हैं।

       

ओ माई गॉड

       हमारे एक परिचित शिक्षक हैं।बहुत ही ज्ञानी एवं सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी।सही मायने में ज्ञानी इसलिए भी कि अहंकार तो जैसे रत्तीभर भी ना हो।एक दिन उनसे मिलने गया। घर में उनके परिवार के अन्य सदस्यों के अलावा एक बयोवृद्ध माताजी भी हैं जिनका वो तन मन से ख्याल रखते हैं।पूर्ण रूपेण नास्तिक तो नही ंहैं पर बेकार के आडंबरों से बिल्कुल दूर रहना चाहते हैं. ।वहीं माताजी उनके एकदम उलट  एकदम धर्मभीरू एवं भक्तिभावना से ओत प्रोत।मां  बेटे में मिठी नोंकझोंक होने लगी ।साहब माताजी को तीर्थयात्रा पर लेकर गए थे।कुछ तो उम्र का प्रभाव तो कुछ यात्रा की कठिनाइयां Ê माताजी रास्ते में ही बीमार हो गईं।तीर्थ तक पहुंच तो गईं पर बीमारी के कारण भगवत दर्शन का आनंद नहीं ले पााईं।साहब ने कहा कि जब पूरे राह आंखें बंद ही रहीं तो ताीर्थ जाना तोा व्यर्थ ही गया । आजकल जब इंटरनेट पर जब सबकुछ उपलब्ध है तो वहां जाकर धक्का खाकर यह सब सहने की क्या जरूरत है।उन दिनों जब संचार माध्यम एवं यात्रा के साधन बहुत कम थे तब चार धाम की यात्रा के पीछे  उद्देश्य था कि लोग इसी बहाने से अपने क्षेत्र से बाहर निकलें और अन्य स्थानों पर धाम  दर्शन के नाम पर उन स्थानों की संस्कृति का आनन्द लेंÊएक दूसरे की संस्कृति को जानें।आज के युग में सिर्फ दर्शन के लिए जाने का कोई औचित्य नहीं और वो भी तब जबकि आपका शरीर इस बात के लिए तैयार ना हो।मााताजी का तर्क था कि इसी बहाने तुमने मां की सेवा का लाभ ले लिया।किसी भी तरह से माताजी अपने विचारधरा को बदलने की बात सोच ही नहीं सकती हैं।होना भी नहीं चाहिए। आखिर हमारा देशा धर्म के लिए ही तो सदियों से जाना जाता है।

        भारत के हर प्रान्त में विभिन्न रूप में भगवान की अर्चना की जाती है ।बंगाल में दुर्गा पूजा,महाराष्ट्र में गणपति की तो ऐसे ही हर प्रान्तवासी अपने अपने हिसाब से त्यौहारों को मनाता है। त्यौहारों का मौसम आते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है।हर तरफ एक अनोखा उल्लास और खुशहाली का माहौल हो जाता है।लोग पहले से ही इसके लिए तैयारियों में जुट जाते हैं।कहीं कपड़ो की खरीददारी होने लगती है तो कहीं गहनों की।सारा बाजार सजीव हो उठता है।लगता है कि अबकी कमाई हो गई तो फिर कई दिनों तक काम करने की जरूरत महसूस नहीं होगी।आलम ऐसा होता है कि हमारे देश के इन त्यौहारों की धूम विदेशों तक में फैल जाती है।आयोजनों के लिए एक से एक संस्थाएं आगे आती हैं।बढ़–चढ़कर चंदा उगाही की जाती है।यह सिर्फ इसलिए कि खूब धूमधाम से पूजा मंडप को सजाया जा सके और उसमें अलंंकृत भगवान की प्रतिमा को विराजमन किया जा सके।देखने वाला जो भी आए, मंत्रमुग्ध हो जाए और फर इस छटा को अपने में समेटे यादों तक में ले कर जाए।धूमधाम से सारा आयोजन संपन्न हो जाता है और फिर निश्चित दिन मूर्ति विसर्जन का समय आता है।यही एक परंपरा है जे मेरे मन पर इस प्रकार के आयोजनों के प्रति एक नाकारात्मक छाप छोड़ती है ।ऐसा नहीं की मैं एकदम नास्तिक प्रकृति का इंसान हूँ या फिर नाकारत्मक सोच वाला पर बाद की दशा देखकर मै कुछ हताश सा अवश्य हो जाता हूँ।विसर्जन के दिन इन मूर्तियों को या तो जल में डुबो दिया जाता है या फिर जहॉ जल की कमी है वहॉं सड़कों के किनारे छोड़ दिया जाता है धूप,बारिष,मौसम के थपेड़ों से टकराकर कालकलवित होने के लिए। चलिए मान लेते हैं कि इस प्रक्रिया द्वारा यह साबित किया जाता है कि जिसने भी जन्म लिया है उसको एक न एक दिन पंच तत्व में विलीन होना ही पड़ता है और फिर इन मूर्तियों को पंचतत्व में विलीन करके हम इस बात का अहसास भी कर लेते हैं।पर क्या यह सर्वथा उचित लगता है कि हम जिसकी धूमधाम से पूजा–अर्चना करते हैं उसे सड़क के किनारे यूँ ही अकेला छोड़ देते हैं प्रकृति के भरोसे कालकलवित होने के लिए ? क्या यह उनका सरासर अपमान नहीं है? क्या यह तरीका सर्वथा उचित है?

         शायद यही एक वजह है कि 'राजा राम मोहन राय' जैसे लोगों ने मूर्तिपूजा का  विरोध किया था।मूर्तिपूजा हो सकता है कि ध्यान लगाकर साधना करने का एक साधन मात्र हो पर इसका इस प्रकार से समापन तो कहीं भी किसी भी रूप में उचित नहीं लगता है।

        कल की ही बात है, छोटे भाई कहीं से एक फिल्म “ओ माई गॉड” की सीडी लाए।हम सबने एक साथ बैठकर इसका आनंद लिया।सचमुच में इसकी 'थीम' बहुत ही अच्छी है।वैसा ही जैसा कि मैं सोचा करता था।कृपया अन्यथा ना लें ना ही तो मेरे मन में ऐसी कोई भावना है कि मैं भगवान को न मानने वाला हूं या फिर किसी घटना के लिए संपूर्ण रूप से भगवान को दोषी मानकर उनके खिलाफ चढ़ दौड़ू  जैसा कि फिल्म के कलाकार 'परेश रावलजी' ने किया। जब हमपर कोई आफत या फिर इम्तहान का समय होता है, हम पहुॅच जाते हैं रिश्वत की अर्जी लेकर भगवान के द्वारे पर और फिर मोलभाव की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है।इसका कुछ ज्यादा ही भुक्तभोगी रहा हूँ मैं।

        'कलकत्ता प्रवासी' होने के कारण 'ंमां काली' में हमारी काफी आस्था रही है।हम ही क्यों कलकत्ता के बाहर रहने वाले धार्मिक प्रवृति का यदि कोई भी होगा और उसे कलकत्ता जाने का मौका दिया जाय और पूछा जाय कि वहां जाकर क्या देखना चाहेगा तो सबसे पहले उसके जुबान पर 'कलकत्ते की मां काली' का नाम ही आएगा।सचमुच बड़ी कृपा बरसाने वाली हैं मातृरूप देवियां।मैं भी दर्शन की अभिलाषा लिए जा पहुॅचा 'कालीघाट'।'कालीघाट'  मेट्रो रेल का एक स्टेशन है जहॉं से मंदिर बिल्कुल पास में ही है।स्टेशन से जैसे ही बाहर आया  मस्तक पर तिलक लगाए हुए धोतीधारी एक सज्जन मिल गए कहा. 'सुलभ ढंग से मां के दर्शन करवा दुंगा'। म्ंौने पूछा आप कौन हैं तो जवाब मिला कि हम 'पंडा' हैं।ऐसे ही वेशभूषा में कई और लोग मिल गए जो कि यात्रियों को 'सुविधा' प्रदान करते हैं 'ंमां काली ' के दर्शन करवाने में। थोड़ी सी मोलभाव के बाद हमारी डील पक्की हो गई और हम दर्शन के लिए निकल पडे.।यहीं से शूरूआत हुई आस्था के नाम पर मोलभाव की।कुछ नीचेÊकुछ ऊपर ले दे कर मंदिर के प्रवेशद्वार पर पहुचे।पूरी आस्था के साथ मन प्रसन्न हो रहा था कि माताजी के चरणों में वंदना करने की बरसों की मुराद आज पूरी होने जा रही है।पर मंदिर के अम्दर तो और भी गोरखधंधा बना पड़ा था। रस्सी के सहारे माता की प्रतिमा के पास लटकने वाले पंडे बार बार उकसा रहे थे कि माता के भोग के लिए कुछ दोÊमाता की आरती के लिए कुछ दोÊअपने कल्याण के लिए कुछ दो और जो कुछ भी था उसकी संख्या पंद्रह सौ रूपए से ही शुरू हो रही थी।भीड़ के धक्के से मै और मेरे परिवार का हर सदस्य जैसे कुचल जा रहा था।पर ये मुए ऐसे थे जो कि बस निचोड़ने के प्रयास में लगे हुए थे।ऐसे माहौल में जहां संत्री से लेकर पुजारी सभी लुटेरे के समान आप पर हावी हो रहे हों तब मन की श्रद्धा गायब होकर क्रोध का रूप लेने लगती है और लगता है कि हम कहां आ गए जानबूझकर खुद को लुटवाने।

        ऐसा नहीं की यह बात सिर्फ कलकत्ते तक ही सीमित हो।यह सब भारत के लगभग हर बडे मंदिरों मै है जहॉ भक्त को भगवान से ज्यादा कुछ मिलने की आशा होती है अन्य शब्दों में जहां से अधिक एवं तुरंत कृपा मिलने की बात सुनी जाती है।

        अब भक्त  को भगवान से मिलकर उनका सानिध्य एवं आशिर्वाद लेना है पर इस प्रकार की क्रिपा पााने की राह हमें और कुछ दे या ना दे पर एक सीख तो दे ही देता है और वह यह है कि हम अपनी जेब को कटने से बचाने का हर प्रयास करने लग जाते हैं जो कि आस्था के सामने एक असफल प्रयास होता है एवं देव भक्ति के कारण क्रोध प्रकट ना करके उसे पीने एवं सहने की आदत सीख लेते हैं

नागमणी

        क्या आपने कभी नागमणी देखा है, या फिर इस बात में यकीन रखते हैं कि नागमणी का कोई अस्तित्व भी होता होगा?
        यूं तो नागमणी के विषय में मैने बहुत सारी चर्चाएं सुना है।अधिकतर ज्ञानी लोगों ने यही कहा कि नागमणी जैसी कोई चीज नहीं होती पर वहीं दूसरी ओर लोक कथाएं एवं दंत कथाएं ऐसी कहानियों से भरी हुई हैं जिनमें नागमणी क बारे मे जिक्र आ ही जाता है।बॉलीवुड की फिल्मों को देखें तो ऐसी फिल्मों की भरमार सी लगी हुई है।अब पता नहीं नागमणी होता भी है या नहीं पर लोगों से पूछें तो अधिकांश लोग इसे तथ्य ही मानते हैं।यह घटना मुझे मेरे एक मित्र की पत्नी ने सुनाया।हमलोग बैठे 'नगीना' देख रहे थे।फिल्म के दौरान ही बात कुछ यूं शुरू हुई ,मैडम ने बताना शुरू किया।
        एक बार रात का समय था।माताजी गांव में थीं।पिताजी किसी काम से बाहर निकले हुए थे।उनको देखने के लिए माताजी छत से उतरकर नीचे मुख्य द्वार की ओर जाने लगीं।मुख्य द्वार के पास ही एक कमरे में जानवरों के लिए भूसा तथा बेकार की चीजें पड़ी रहती थीं।दरवाजा खुला था।खुला दरवाजा देखकर माताज्ी बड़बड़ाते हुए उसे बंद करने के लिए बढ़ीं।तभी उनकी नजर जमीन पर पड़े एक चमकती चीज पर पड़ी।छोटा सा टुकड़ा था पर उसमें से एक अनोखी सी रोशनी निकल रही थी।माताजी कुछ समझ नहीं पाईं कि क्या है 'वो'।उन्होंने उसे हाथों में उठा लिया।पूरा कमरा जैसे रोशन हो गया हो।कहीं हाथों से छूटकर गिर न जाए इसलिए उसे उन्होंने अपने आंचल में  लपेट लिया।
        अरे यह क्या? रोशनी अब भी निकल रही थी और वो भी आंचल को जैसे चीरकर रोशन करने को उतारू हो रही थी।तबतक बाहर से पिताजी की आवाज आई।पिताजी बाहर से आ गए थे तथा माताजी को पुकार रहे थे।पिताजी को शायद जल्दी थी।माताजी हड़बड़ाहट में उसे पास ही के एक बक्से पर रख कर पिताजी को सुनने के लिए आगे बढ़ीं।जैसे ही उस वस्तु को बक्से पर रखा कही से तीर की तरह सनसनाता हुआ एक विशाल सांप आयाÊ उस वस्तु को निगला और वापस मुड़कर कही निकल गया।विशाल सर्प को देखकर माताजी की घिग्घी बंध गई।जहां थीं वहीं जड़ बनकर रह गईं।आवाज देने के बाद भी जब माताजी की ओर से कोई जवाब नहीं मिला तो पिताजी ने कमरे में प्रवेश किया।माताजी को जड़ अवस्था में देखकर उन्होंने हिलाया और पूछा कि माजरा क्या है।माताजी ने सारा किस्सा बयान किया।अब तो घर में जैसे भूचाल आ गई।सभी सांप को ढूंढने निकल पड़े कि कहीं किसी घर में कहीं रह गया तो किसी को काट ना ले।पूरा घर देख लिया गया पर 'वो' नहीं मिला।
        थोड़ा आश्वस्त होने के बाद माताजी ने घरवालों को यह वाकया बताया।तब मैं कक्षा 10 में पढ़ती थी।लोगों ने माताजी को तरह तरह से कहना शुरू किया।निचोड़ यह था कि हाथ आया हुआ भाग्य आज हाथ से निकल गया।यदि वो मणी माताजी ने संभालकर छुपा दिया होता तो आज हमारे घर की दशा कुछ और ही होती पर भाग्य को शायद कुछ और ही म्ांजूर था।
        मन के किसी कोने में आज भी यह कसक है कि आया हुआ धन का मार्ग वापस चला गया।यदा कदा वह सर्प घर के आसपास घूमता हुआ दिखा तो जरूर पर नागमणी का कुछ भी पता नहीं चला।
       

O MY GOD



ओ माई गॉड
       
हमारे एक परिचित शिक्षक हैं।बहुत ही ज्ञानी एवं सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी।सही मायने में ज्ञानी इसलिए भी कि अहंकार तो जैसे रत्तीभर भी ना हो।एक दिन उनसे मिलने गया। घर में उनके परिवार के अन्य सदस्यों के अलावा एक बयोवृद्ध माताज्ी भी हैं जिनका वो तन मन से ख्याल रखते हैं।पूर्ण रूपेण नास्तिक तो नही ंहैं पर बेकार के आडंबरों से बिल्कुल दूर रहना चाहते हैं. ।वहीं माताजी उनके एकदम उलट  एकदम धर्मभीरू एवं भक्तिभावना से ओत प्रोत।मां  बेटे में मिठी नोंकझोंक होने लगी ।साहब माताजी को तीर्थयात्रा पर लेकर गए थे।कुछ तो उम्र का प्रभाव तो कुछ यात्रा की कठिनाइयां Ê माताजी रास्ते में ही बीमार हो गईं।तीर्थ तक पहुंच तो गईं पर बीमारी के कारण भगवत दर्शन का आनंद नहीं ले पााईं।साहब ने कहा कि जब पूरे राह आंखें बंद ही रहीं तो ताीर्थ जाना तोा व्यर्थ ही गया । आजकल जब इंटरनेट पर जब सबकुछ उपलब्ध है तो वहां जाकर धक्का खाकर यह सब सहने की क्या जरूरत है।उन दिनों जब संचार माध्यम एवं यात्रा के साधन बहुत कम थे तब चार धाम की यात्रा के पीछे  उद्देश्य था कि लोग इसी बहाने से अपने क्षेत्र से बाहर निकलें और अन्य स्थानों पर धाम  दर्शन के नाम पर उन स्थानों की संस्कृति का आनन्द लेंÊएक दूसरे की संस्कृति को जानें।आज के युग में सिर्फ दर्शन के लिए जाने का कोई औचित्य नहीं और वो भी तब जबकि आपका शरीर इस बात के लिए तैयार ना हो।मााताजी का तर्क था कि इसी बहाने तुमने मां की सेवा का लाभ ले लिया।किसी भी तरह से माताजी अपने विचारधरा को बदलने की बात सोच ही नहीं सकती हैं।होना भी नहीं चाहिए। आखिर हमारा देशा धर्म के लिए ही तो सदियों से जाना जाता है।
        भारत के हर प्रान्त में विभिन्न रूप में भगवान की अर्चना की जाती है ।बंगाल में दुर्गा पूजा,महाराष्ट्र में गणपति की तो ऐसे ही हर प्रान्तवासी अपने अपने हिसाब से त्यौहारों को मनाता है। त्यौहारों का मौसम आते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है।हर तरफ एक अनोखा उल्लास और खुशहाली का माहौल हो जाता है।लोग पहले से ही इसके लिए तैयारियों में जुट जाते हैं।कहीं कपड़ो की खरीददारी होने लगती है तो कहीं गहनों की।सारा बाजार सजीव हो उठता है।लगता है कि अबकी कमाई हो गई तो फिर कई दिनों तक काम करने की जरूरत महसूस नहीं होगी।आलम ऐसा होता है कि हमारे देश के इन त्यौहारों की धूम विदेशों तक में फैल जाती है।आयोजनों के लिए एक से एक संस्थाएं आगे आती हैं।बढ़–चढ़कर चंदा उगाही की जाती है।यह सिर्फ इसलिए कि खूब धूमधाम से पूजा मंडप को सजाया जा सके और उसमें अलंंकृत भगवान की प्रतिमा को विराजमन किया जा सके।देखने वाला जो भी आए, मंत्रमुग्ध हो जाए और फर इस छटा को अपने में समेटे यादों तक में ले कर जाए।धूमधाम से सारा आयोजन संपन्न हो जाता है और फिर निश्चित दिन मूर्ति विसर्जन का समय आता है।यही एक परंपरा है जे मेरे मन पर इस प्रकार के आयोजनों के प्रति एक नाकारात्मक छाप छोड़ती है ।ऐसा नहीं की मैं एकदम नास्तिक प्रकृति का इंसान हूँ या फिर नाकारत्मक सोच वाला पर बाद की दशा देखकर मै कुछ हताश सा अवश्य हो जाता हूँ।विसर्जन के दिन इन मूर्तियों को या तो जल में डुबो दिया जाता है या फिर जहॉ जल की कमी है वहॉं सड़कों के किनारे छोड़ दिया जाता है धूप,बारिष,मौसम के थपेड़ों से टकराकर कालकलवित होने के लिए। चलिए मान लेते हैं कि इस प्रक्रिया द्वारा यह साबित किया जाता है कि जिसने भी जन्म लिया है उसको एक न एक दिन पंच तत्व में विलीन होना ही पड़ता है और फिर इन मूर्तियों को पंचतत्व में विलीन करके हम इस बात का अहसास भी कर लेते हैं।पर क्या यह सर्वथा उचित लगता है कि हम जिसकी धूमधाम से पूजा–अर्चना करते हैं उसे सड़क के किनारे यूँ ही अकेला छोड़ देते हैं प्रकृति के भरोसे कालकलवित होने के लिए ? क्या यह उनका सरासर अपमान नहीं है? क्या यह तरीका सर्वथा उचित है?
         शायद यही एक वजह है कि 'राजा राम मोहन राय' जैसे लोगों ने मूर्तिपूजा का  विरोध किया था।मूर्तिपूजा हो सकता है कि ध्यान लगाकर साधना करने का एक साधन मात्र हो पर इसका इस प्रकार से समापन तो कहीं भी किसी भी रूप में उचित नहीं लगता है।
        कल की ही बात है, छोटे भाई कहीं से एक फिल्म “ओ माई गॉड” की सीडी लाए।हम सबने एक साथ बैठकर इसका आनंद लिया।सचमुच में इसकी 'थीम' बहुत ही अच्छी है।वैसा ही जैसा कि मैं सोचा करता था।कृपया अन्यथा ना लें ना ही तो मेरे मन में ऐसी कोई भावना है कि मैं भगवान को न मानने वाला हूं या फिर किसी घटना के लिए संपूर्ण रूप से भगवान को दोषी मानकर उनके खिलाफ चढ़ दौड़ू  जैसा कि फिल्म के कलाकार 'परेश रावलजी' ने किया। जब हमपर कोई आफत या फिर इम्तहान का समय होता है, हम पहुॅच जाते हैं रिश्वत की अर्जी लेकर भगवान के द्वारे पर और फिर मोलभाव की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है।इसका कुछ ज्यादा ही भुक्तभोगी रहा हूँ मैं।
        'कलकत्ता प्रवासी' होने के कारण 'ंमां काली' में हमारी काफी आस्था रही है।हम ही क्यों कलकत्ता के बाहर रहने वाले धार्मिक प्रवृति का यदि कोई भी होगा और उसे कलकत्ता जाने का मौका दिया जाय और पूछा जाय कि वहां जाकर क्या देखना चाहेगा तो सबसे पहले उसके जुबान पर 'कलकत्ते की मां काली' का नाम ही आएगा।सचमुच बड़ी कृपा बरसाने वाली हैं मातृरूप देवियां।मैं भी दर्शन की अभिलाषा लिए जा पहुॅचा 'कालीघाट'।'कालीघाट'  मेट्रो रेल का एक स्टेशन है जहॉं से मंदिर बिल्कुल पास में ही है।स्टेशन से जैसे ही बाहर आया  मस्तक पर तिलक लगाए हुए धोतीधारी एक सज्जन मिल गए कहा. 'सुलभ ढंग से मां के दर्शन करवा दुंगा'। म्ंौने पूछा आप कौन हैं तो जवाब मिला कि हम 'पंडा' हैं।ऐसे ही वेशभूषा में कई और लोग मिल गए जो कि यात्रियों को 'सुविधा' प्रदान करते हैं 'ंमां काली ' के दर्शन करवाने में। थोड़ी सी मोलभाव के बाद हमारी डील पक्की हो गई और हम दर्शन के लिए निकल पडे.।यहीं से शूरूआत हुई आस्था के नाम पर मोलभाव की।कुछ नीचेÊकुछ ऊपर ले दे कर मंदिर के प्रवेशद्वार पर पहुचे।पूरी आस्था के साथ मन प्रसन्न हो रहा था कि माताजी के चरणों में वंदना करने की बरसों की मुराद आज पूरी होने जा रही है।पर मंदिर के अम्दर तो और भी गोरखधंधा बना पड़ा था। रस्सी के सहारे माता की प्रतिमा के पास लटकने वाले पंडे बार बार उकसा रहे थे कि माता के भोग के लिए कुछ दोÊमाता की आरती के लिए कुछ दोÊअपने कल्याण के लिए कुछ दो और जो कुछ भी था उसकी संख्या पंद्रह सौ रूपए से ही शुरू हो रही थी।भीड़ के धक्के से मै और मेरे परिवार का हर सदस्य जैसे कुचल जा रहा था।पर ये मुए ऐसे थे जो कि बस निचोड़ने के प्रयास में लगे हुए थे।ऐसे माहौल में जहां संत्री से लेकर पुजारी सभी लुटेरे के समान आप पर हावी हो रहे हों तब मन की श्रद्धा गायब होकर क्रोध का रूप लेने लगती है और लगता है कि हम कहां आ गए जानबूझकर खुद को लुटवाने।
        ऐसा नहीं की यह बात सिर्फ कलकत्ते तक ही सीमित हो।यह सब भारत के लगभग हर बडे मंदिरों मै है जहॉ भक्त को भगवान से ज्यादा कुछ मिलने की आशा होती है अन्य शब्दों में जहां से अधिक एवं तुरंत कृपा मिलने की बात सुनी जाती है।
        अब भक्त  को भगवान से मिलकर उनका सानिध्य एवं आशिर्वाद लेना है पर इस प्रकार की क्रिपा पााने की राह हमें और कुछ दे या ना दे पर एक सीख तो दे ही देता है और वह यह है कि हम अपनी जेब को कटने से बचाने का हर प्रयास करने लग जाते हैं जो कि आस्था के सामने एक असफल प्रयास होता है एवं देव भक्ति के कारण क्रोध प्रकट ना करके उसे पीने एवं सहने की आदत सीख लेते हैं।
बक्रेशवर : एक अनोखा धर्मस्थल
        उन दिनों मैं कलकत्ता में था।चिकित्सा कार्य में संलग्न होने के कारण लायंस क्लब की ओर से आयोजित नेत्र जांच शिविरों में शामिल होता रहता था।एक दिन लायन्स क्लब हावड़ा की ओर से तीन दिवसीय आई कैंप में जाने का आमंत्रण मिला।इतनी लम्बी अवधि का कार्यक्रम पहली बार मिला था और फिर नया स्थान देखने का लोभ मैं झट से तैयार हो गया।लगभग 20 ऑप्टोमेट्रिस्टों का दल इस अभियान में शामिल हुआ।पूरे क्षेत्र के  ऑप्टोमेट्रिस्ट इसमें शामिल थे।
        पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में 'सूरी' सबडिवीजन में आता है यह स्थान।हमारी यात्रा बस द्वारा 'हावड़ा मैदान' के 'लायंस हास्पिटल' से शुरू हुई।सभी अलग अलग स्थानों से आए हुए थे लिहाजा जान पहचान बनाने में कुछ वक्त लग गया।लगभग पंद्रह बीस मिनट के बाद हम सब एक दूसरे को जानने–पहचानने लगे थे।उन दिनों बंगाल की राजनीति में उथल पुथल मचाने वाली एक घटना चल रही थी 'सिंगुर' में 'टाटा मोटर' की नैनो परियोजना को लेकर।अखबारों में तो बहुत कुछ पढ़ने को मिलता था पर उस स्थान को देखने का अवसर इस यात्रा के दौरान हो गया।हमारे गंतब्य के रास्ते में यह स्थान भी मिला।सचमें एक लम्बा चौड़ा इलाका इस काम के लिए लिया गया था,ठीक सड़क के किनारे।चलते रहे हम यँू ही नजारे देखते हुए और नए गीतों के छम्द सुनते हुए।लगभग डेढ़ घंटे की यात्रा करके हम 'बक्रेश्वर' पहुंच गए।
        बक्रेश्वर जैसा कि नाम से ही परिलक्षित होता है, इस स्थान का नाम मुनि अष्टाबक्र के नाम पर रखा गया है।यहां के मंदिर में सबसे अलग बात यह देखने में आता है कि भगवान के पहले भक्त की पूजा की जाती है यानि की 'ऋषि अष्टाबक' की पूजा भगवान शिव की पूजा के पहले की जाती है।ऐसा विश्वास है कि ऋषि अपने समय के विद्वानों में से सर्वोपरि थे।उन्होंने यहां वर्षों भगवान शिव की तपस्या की जिसके फलस्वरूप उन्हें भगवान का आशिर्वाद प्राप्त हुआ।
        नेत्र जांच कैंप यहां के एक आश्रम में लगाया गया था जहां हमारे भोजन का भी प्रबंध था।एक सुदूर ग्रामांचल जहां सुविधाओं के नाम पर शायद कुछ खास नहीं पर एक तीर्थ स्थान एवं भ्रमणस्थल है।साधारण से रहन सहन वाले सच्चे एवं सीधे सादे लोग।चिकित्सा सुविधाएं भी लगभग साधारण ही उपलब्ध।लायंस क्लब की ओर से यहां हर तिमाही इस प्रकार का कैंप लगाया जाता है जिसमें निःशुल्क नेत्र जांच, निःशुल्क चश्मा वितरण एवं आवश्यकतानुरूप शहर लेजाकर 'मोतियाबिंद' के मरीजों का निःशुल्क आपरेशन कराया जाता है।इस कैंप के दौरान यहां के युवा हमारे कार्य में सहयोग भी दे रहे थे तथा यहां के बारे में हमें बता भी रहे थे।यही युवा यात्रियों के लिए गाईड का भी काम करते हैं।
        शाम के समय हम पास के बाजार गए।दशहरा का समय था। बाजार में काफी चहल पहल थी।एक मेला सा लगा हुआ था।ज्यादातर लोग या तो ग्राम्ीण थे या आदिवासी।इनकी भाषा एवं संस्कृति में बंग्ला और भोजपुरी्रझारखंडी भाषा का मेल था।लगता था जैसे यहां आने के बाद बंगला भाषा से मिलकर इन आदिवासियों की भाषा मिली जुली भाषा हो गई हो।शायद इस भाषा को कोई नाम अबतक ना मिला हो क्योंकि पूछने पर लोग इस भाषा का नाम नहीं बता पाए।बहुत ही रंगीन माहौल था।अपने अपने कामों से फारिग होकर हर व्यक्ति  खरिददारी में लगा हुआ था।ऐसा लग रहा था कि यहां  समय एवं काल के हिसाब से बाजार शायद रात में ही लगती है।आवश्यकता एवं उपयोग की हर सामग्री उपलब्ध है।
        दूसरे दिन हम कैंप की जिम्मेदारियों से कुछ हल्का हुए।हमने यहां के दर्शनीय स्थानों पर जाने का कार्यक्रम बनाया।चिकित्सा कैंप में सहायता कर रहे स्थानीय युवा हमारे साथ हो लिए।अधिकतर ये युवा या तो गाईड का काम करते हैं या फिर मंदिर में पुरोहित का।बहुत ही खुशमिजाज एवं व्यवहार कुशल।इस स्थान के बारे में अधिकांश जानकारी उनलोगों द्वारा ही मिली।सबसे पहले हम 'अष्टाबक्र महाराज ' के मंदिर में गए।वहीं से हमारे देव दर्शन की यात्रा शुरू हुई।मंदिर के अंदर माता 'आदि शक्ति' का मंदिर है।कहते हैं कि माता सती के वियोग में जब भगवान शिव उनके शरीर को लिए हुए विक्षिप्त से होकर फिर रहे थे, भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र की सहायता से सती के शरीर के कई टुकड़े किए थे।वो अंश जहां जहां गिरे वहां एक शक्तिपीठ की स्थापना हुई।ऐसे 51 शक्तिपीठ  हैं जिनमें में से एक शक्तिपीठ यहां भी है।यहां माता के भौंहें गिरे थे।अब तो भौंहों के रूप में वहां पाषाण शिला के अंश हैं जिन्हें छूकर अनुभूति की जा सकती है।बड़ा ही पावन स्थल है।
        यहां से कुछ दूरी पर एक ताप विद्युत केंद्र है।इस स्थान की सबसे अनोखी बात यह है कि मंदिर के पास ही दस कुंड बने हुए हैं जिनमें से अधिकांश में से खौलते हुए पानी को निकलता हुआ देखा जा सकता है।इन खौलते हुए जल का तापमान कहीं 65 से लेकर 80 डिग्री सेल्सीयस तक होता है।अलग अलग नामों से अलंकृत अलग अलग कुंड ।इन कुंडों को गंगा का ही रूप माना जाता है तथा इनके नाम के साथ गंगा शब्द जुड़ा हुआ है जैसेः पापहरण गंगा, बैतरणी गंगा, खार कूंड, भैरव कुंड, अग्नि कुंड, दूध कुंड, सूर्य कुंड, श्वेत गंगा, ब्रम्ह कुंड, अम्रित कुंड।इन कुंडों से निकलने वाले जल में बहुत सारे रसायन मिले हुए हैं और कहा जाता है कि इनमें औषधीय गुण भी है।स्थानीय लोगों के अनुसार गर्म जल के इन कुंडों के रहस्य को जानने के लिए खोज एवं जांच कार्य जारी है।
        तीन दिनों का यहां का सफर हमारे लिए एक अवसर दे गया कि हम अपने देश के ऐसे सुदूर स्थानों पर स्थित लोगो एवं संस्कृति को देख और जान सकें।रेल तथा सड़क मार्ग से भी यहां पहुंचा जा सकता है।हावड़ा स्टेशन से लोकल ट्रेन बहुतायत रूप में उपलब्ध हैं।